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________________ २८० अनेकान्त [फाल्गुन, वीर-निर्वाण सं०२४६५ लिखा, किन्तु कर्मभूमिज बतला याहै । यथा- निवेशितास्तथाऽन्येपि विभक्ता विषयास्तथा ॥१५६॥ "म्लेच्छा द्विविधा अन्तरद्वीपजाः कर्मभूमिजाश्चेति ।" तदन्तेवन्तपालानां दुर्गाणि परितोऽभवन् । "कर्मभूमिजाश्च शक-यवन-शबर-पुलिन्दादयः ।" स्थानानि लोकपालानामिव स्वर्धामसीमसु ॥१६०॥ --सर्वार्थसिद्धि, राजवार्तिक तदन्तरालदेशाश्च बभूवुरनुरक्षिताः। वास्तवमें आर्यखण्ड और म्लेच्छखण्ड दोनों ही लुब्धकाऽरण्यचरट-पुलिन्द-शबरादिभिः ॥१६१ ॥ कर्मभूमियाँ हैं और इस लिये 'कर्मभूमिज' शब्दमें आर्य -श्रादिपुराण, पर्व १६ खण्डोदभव तथा म्लेच्छखण्डोदभव दोनों प्रकारके यही वजह है कि जिस समय भरत चक्रवर्ती दिग्विम्लेच्छोंका समावेश है। इसीसे अमतचन्द्राचार्यने जयके लिये निकले थे तब उन्हें गंगाद्वार पर पहुँचनेसे उन्हें स्पष्ट करते हुए म्लेच्छोको तीन भेदोंमें विभाजित पहले ही श्रार्यखण्डमें अनेक म्लेच्छ राजा तथा किया है। अतः अमतचन्द्राचार्य के उक्त वाक्यमें प्रयक्त पुलिन्द लोग मिले थे-पुलिन्द म्लेच्छोंकी कन्याएँ हुए 'केचिच्छकादयः' का अर्थ म्लेच्छखण्डोंसे श्राकर चक्रवर्तीकी सेनाको देखकर विस्मित हुई थीं-और उन्होंने श्रार्यखण्डमें बसने वाले म्लेच्छ नहीं किन्तु 'श्रार्य अनेक प्रकार की भेंटे देकर भरत चक्रवर्तीके दर्शन खण्डोद्भव' म्लेच्छ ही हो सकता है और यह विशेषण किये थे । उस वक्त तक म्लेच्छखण्डोंके कोई म्लेच्छ दूसरे म्लेच्छोंसे व्यावृत्ति करानेवाला होने के कारण आर्यखण्डमें आये भी नहीं थे, और इसलिये वे सब सार्थक है । अमृतचन्द्राचार्य के समयमें तो म्लेच्छखण्डों- म्लेच्छ पहलेसे ही आर्यखण्डमें निवास करते थे; से आकर आर्यखण्ड में बसने वाले कोई म्लेच्छ थे भी जैसा कि श्रादिपुराण के निम्न वाक्योंसे प्रकट हैं:-- नहीं, जिन्हें लक्ष्य करके यह भेद किया गया हो । जो पुलिन्दकन्यकाः सैन्यसमालोकनविस्मिताः। म्लेच्छ किसी चक्रवर्तीके समयमें श्राकर बसे भी होंगे अव्याजसुन्दराकारा दूरादालोकयत्प्रभुः ॥४१॥ उनका अस्तित्व उस समय होही नहीं सकता और उनकी चमरीबालका केचित् केचित्करतरिकारडकान् । संतान शास्त्रीजीके कथनानसार म्लेच्छ रहती नहीं-- प्रभोरुपायनीकृत्य ददृशुग्लेंच्छराजकाः॥४२॥ वह पहले ही आर्यजातिमें परिणत होगई थी। इसके ततोविदूरमुल्लंप्य सोऽध्वानं सह सेनया। सिवाय, शक और यवनादिक जिन देशोंके निवासी हैं गंगाद्वारमनुप्रापत् स्वमिवालंध्यमर्णवम् ॥४५॥ वे आर्यखण्डके ही प्रदेश हैं । श्री श्रादिनाथ भगवान्के -आदिपुराण, पर्व २८ समयमें और उनकी आज्ञासे आर्यखण्डमें जिन मुख्य इन सब प्रमाणोंसे इस विषयमें कोई संदेह नहीं तथा अन्तराल देशोंकी स्थापना की गई थी उनमें शक- रहता कि शक, यवन, शबर और पुलिन्दादिक म्लेच्छ यवना दिकके देश भी हैं । जैसा कि श्रीजिनसेनाचार्य- आर्यखण्ड के ही रहने वाले हैं, आर्यखण्डोद्भव हैं-- विरचित आदिपुराण के निम्न वाक्योंसे प्रकट है :-- म्लेच्छखण्डोद्भव नहीं हैं । शास्त्रीजी का उन्हें 'म्लेच्छ दर्वाभिसार-सौवीर-शूरसेनापरान्तकाः। खण्डोदभव' लिखना तथा यह प्रतिपादित करना कि विदेह-सिन्धु-गान्धार-यवनाश्वेदि-पल्लवाः ॥१५५॥ 'आर्यखण्डोद्भव कोई म्लेच्छ होते ही नहीं' तथा 'किसी काम्भोजर-बाल्हीक-तुरुष्क-शक केकयाः। प्राचार्यने उन्हें आर्यखण्डमें उत्पन्न होनेवाला लिखा
SR No.538002
Book TitleAnekant 1938 Book 02 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1938
Total Pages759
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size105 MB
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