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________________ वर्ष २ किरण ५ ] ही नहीं, बिल्कुल ग़लत । साथ ही, यह कहना भी ग़लत हो जाता है कि 'श्रार्यखण्ड में उत्पन्न होनेवाले सब चार्य ही होते हैं, म्लेच्छ नहीं' । इसके सिवाय, 'क्षेत्र आर्य' का जो लक्षण श्रीभट्टाकलंक - देवने राजवार्तिक में दिया है उसमें भी यह नहीं बतलाया कि जो श्रार्य खण्ड में उत्पन्न होते हैं वे सब 'क्षेत्र श्रार्य' होते हैं, बल्कि "काशी - कोशलादिषु जाताः क्षेत्रार्याः” इस वाक्यके द्वारा काशी- कौशलादिक जैसे श्रार्यदेशोंमें उत्पन्न होनेवालोंको ही 'क्षेत्र श्रार्य' बतलाया है—शक, यवन तुरुष्क ( तुर्किस्तान) जैसे म्लेच्छ देशोंने उत्पन्न होने वालोंको नहीं । और इस लिए शास्त्रीजीका उक्त सब कथन कितना अधिक निराधार है उसे सहृदय पाठक अब सहज ही में समझ सकते हैं। साथ ही, उनके पूर्वलेख पर इस विषयका जो नोट मैने (अनेकान्त पृ० २०७ ) दिया था उसकी यथार्थताका भी अनुभव कर सकते हैं। और यह भी अनुभव कर सकते हैं कि उस नोट पर गहरा विचार करके उसकी यथार्थता आँकनेका अथवा दूसरी कोई खास बात खोज निकालने - का वह परिश्रम शास्त्रीजीने नहीं उठाया है जिसकी उनसे आशा की जाती थी । अस्तु व शक-यवनादि के सकलसंयम की बातको लीजिये । गोत्र कर्म पर शास्त्रीजीका उत्तर लेख ( २ ) जब ऊपर के कथनसे यह स्पष्ट है कि कि शक यवनादि देश आर्यखण्डके ही प्राचीन प्रदेश हैं, उनके निवासी शक पवन-शबर- पुलिन्दादिक लोग श्रर्यखण्डोद्भव म्लेच्छ हैं और वे सब आर्यखण्ड में कर्मभूमिका प्रारम्भ होने के समय से अथवा भरतचक्रवर्तीकी दिग्विजयके पूर्वसे ही यहाँ पाये जाते हैं तब इस बात को बतलाने अथवा सिद्ध करनेकी जरूरत नहीं रहती कि शक- यवनादिक म्लेच्छ उन लोगोंकी ही सन्तान हैं जो आर्यखंड में वर्तमान कर्मभूमिका प्रारंभ २८१ होनेसे पहले निवास करते थे । शास्त्रोंके कथनानुसार वे लोग भोगभूमिया थे और भोगभूमिया सब उच्चगोत्री होते है— उनके नीच गोत्रका उदय ही नहीं बतलाया गया* -इसलिये भोगभूमियोंकी सन्तान होनेके कारण शकयवनादिक लोग भी उच्च-गोत्री ठहरते हैं। सकलसंयमका अनुष्ठान छठे गुणस्थान में होता है और छठे गुणस्थान तक वे ही मनुष्य पहुँच सकते हैं जो कर्मभूमिया होने के साथ साथ उच्चगोत्री होते हैं । चूंकि शक-यवनादिक लोग कर्मभूमिया होने के साथसाथ उच्चगोत्री हैं, इस लिये वे भी आर्यखण्डके दूसरे कर्मभूमिज मनुष्यों (आर्यों) की तरह सकलसंयम के पात्र हैं । भगवती आराधनाकी टीका में श्रीश्रपराजितसूरिने, कर्मभूमियों और कर्मभूमि जोंका स्वरूप बतलाते हुए, कर्मभूमियाँ उन्हें ही बतलाया है जहाँ मनुष्योंकी याजीविका असि, मषि, कृषि आदि पट् कर्मों द्वारा होती है और जहां उत्पन्न मनुष्य तपस्वी हुए सकलसंयमका पालन करके कर्मशत्रुओं का नाश करते हुए सिद्धि अर्थात् निर्वृति तक को प्राप्त करते हैं। यथा सिषिः कृषिः शिल्पं वाणिज्यं व्यवहारिता । इति यत्र प्रवर्तन्ते नृणामाजीवयोनयः ॥ पाल्य संयमं यत्र तपः कर्मपरा नराः । सुरसंगतिं वा सिद्धिं प्रयान्ति हतशत्रवः ।। एताः कर्मभुवो ज्ञेयाः पूर्वोक्ता दश पंच च । यत्र संभूय पर्याप्तं यान्ति ते कर्मभूमिजाः ॥ इससे साफ़ ध्वनित है कि कर्मभूमियों में उत्पन्न मनुष्यसकलसंयम के पात्र होते हैं, और इसलिये उनके उच्चगोत्रका भी निषेध नहीं किया जा सकता । यतः चायकी तरह शक-यवनादि म्लेच्छ भी उच्च-गोत्री होते हुए * देखो, गोम्मटसार-कर्मकाण्ड गाथा न०३०२, ३०३
SR No.538002
Book TitleAnekant 1938 Book 02 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1938
Total Pages759
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size105 MB
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