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________________ २८२ अनेकान्त . [फाल्गुण, वीर-निर्वाग सं० २०६५ सकलसंयम के पात्र हैं, इतना ही नहीं, बल्कि म्लेच्छ मिथ्यादृष्टि चरस्याऽऽर्यण्डजमनुष्यस्य सकलसंयमखण्डोंके म्लेच्छ भी कर्मभूमिज मनुष्य होनेके कारण ग्रहणप्रथमसमयेवर्तमानं जघन्यं सकलसंयमलब्धिसकलसंयमके पात्र हैं, जिनके विषयका विशेष विचार स्थानं भवति ।...*ततःपरमसंख्येयलोकमात्राणि पटआगे नम्बर ४ में किया जायगा । स्थानानि गत्वा आर्यखण्डजमनुष्यस्य देशसंयतचरस्य ___ यहाँ पर, इस विपयको अधिक स्पष्ट करते हुए, मैं संयमग्रहणप्रथमसमये वर्तमानमुत्कृष्टं सकलसंयमइतना और भी बतला देना चाहता हूँ कि श्री जयधवल- लधिस्थानं भवति ।" के 'संयमलब्धि' अनुयोगद्वारमें निम्न चूर्णिमूत्र और इन मब अवतरणासि यह बिल्कुल स्पष्ट है कि उमके स्पष्टीकरण-द्वारा आर्यखण्डमें उत्पन्न होनेवाले ग्रार्य-खण्डमें उत्पन्न होने वाले मनुष्कॉम सकलगंयमके कर्मभूमिक मनुष्यको सकलसंयमका पात्र बतलाया है। ग्रहणकी पात्रता होती है । शक, यवन, शबर और उसके सकलगंयम-लब्धिके जघन्य स्थानको भी पूर्व पुलिन्दादिक लोग चंकि अार्यन्वण्डमें उत्पन्न होते हैंप्रतिपातस्थानसे अनन्तगुणा-अनन्तगुणी भावमिद्धि जमा कि ऊपर गिद्ध किया जा चुका है इसलिये वे भी (विशुद्धि) को लिये हुए लिखा है सकलमंयमके पात्र हैं-मुनि हो भवते हैं । ___ "कम्मभमियस्स पडिवज्जमाणस्स जहरणयं (३) आर्यग्बण्डकी जो पैमाइश जैनशास्त्रों में बन संजमाणमणंतगुणं (च० सूत्र)। कुदो ? संकिलस- लाई है उसके अनुसार याज कलकी जानी हुई मारी णिबंधणपडिवादटाणादो पुयिल्लादो तब्यिवरीदस्स दुनिया उसकी सीमा के भीतर या जाती है । इमाम दस्स जहएणत्ते विश्रणंतगुणभावसिद्धीए गायोवव- बाबू सूरजभानजीन उस प्रकट करत हा अपन लेखों एणत्तादो । एत्थ कम्म भूमियस्सेति वुत्ते परणारसकम्म लिखा थाभमीसु मज्झिमखंडसमुप्पण्णुमणुसस्स गहणं कायव्यं "भरतक्षेत्रकी चौड़ाई ५२६ योजन ६ कला है । कर्मभूमिसु जातः कर्मभामजामेति तस्य तद् व्यपदेशा- इसके टीक मध्यम ५० योजन चौड़ा विजयार्ध पर्वत है, हेत्वात्।" जिसे घटाकर दोका भाग देनसे २३८ योजन ३ कलाका इसी तरह सकलसंयमके उत्कृष्ट स्थानको भी पूर्व परिमाण भाता है; यही यायखण्डकी चौड़ाई बढ़े प्रतिपद्यमान स्थानस अनन्तगुग्गा लिया है । यथा- योजना है, जिसके ४७६००० से भी अधिक कोम होते "कम्ममिथस्स पडियज्जमाणस्स उकस्सयं हैं,और यह संख्या या नकलकी जानी हई गारी पथिवीकी संजमठ्ठाणमणंतगुणं (चरिण सत्र)। कुदो ? खेत्तागु- पैमाईशसे बहुत ही ज्यादा-कई गुणी अधिक है। भावेण पुचिल्लादो एदस्स तहाभावसिझीए वाहाणुव- भावार्थ इसका यह है कि ग्राम कालका जानी हुई भाग लद्धीदो।" पृथिवी की यार्यवराट जमरही। यही राव यात लम्भिार ग्रंश नाशा नं. १६५ की इन मध्य भाग छोटे पकी आय म्लेच्छनि टीकासे और को पाटन में नी जाती है। ग्वाड के गानु कि मकाममनकी पात्रतास सम्बन्ध "तस्मादेशसंयमप्रतिपाताभिमुखोलात्पिात- रत है, ..न्हें आगे थे नम्बरकी चर्चा में यथास्थान स्थानादसंख्ययलोकमात्राणि पट्स्थाना-य तरायत्वा उधृत किया जायेगा।
SR No.538002
Book TitleAnekant 1938 Book 02 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1938
Total Pages759
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size105 MB
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