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________________ गोत्र कर्म पर शास्त्रीजीका उत्तर लेख २८३ वर्ष २ किरण ५] इस पर शास्त्री जीकी भी कोई आपत्ति नहीं। आए हुए उन म्लेच्छोको 'कर्म आर्य' बतलाया है जो और समाजके प्रसिद्ध विद्वान् स्वर्गीय पं. गोपालदासजी यहाँके रीतिरिवाज अपना लेते थे और आर्योंकी ही तरह वरैय्याने भी अपनी भूगोजमीमांसा पुस्तकमें, श्रार्यखण्ड- कर्म करने लगते थे; यद्यपि आर्यखण्ड और म्लेच्छखंडोके भीतर एशिया, योरुप,अमेरिका, एफ्रीका और श्राष्ट्र के असि, मषि, कृषि, पाणिज्य और शिल्पादि षट् कर्मोमें लिया-जैसे प्रधान प्रधान द्वीपोंको शामिल करके वर्तमान- परस्पर कोई भेद नहीं है-वो दोनों ही कर्मभूमियोंमें की जानी हई सारी दुनियाका आर्यखण्डमें समावेश समान है,जैसाकि ऊपर उद्धृत किये हुए अपराजितसूरिके बलाया है। जब आर्यखण्ड में आजकलकी जानी कर्मभूमिविषयक स्वरूपसे प्रकट है, और भगवजिनसेनके निराशाजाती है. और आर्यखण्डमें उत्पन्न निम्न वाक्यसे तो यहां तक स्पप है कि म्लेच्छखंडोंके होनेवाले मनुष्य सकलसंयमके पात्र होते हैं, जैसा कि म्लेच्छ धर्मकर्मसे बहि त होनेके सिवाय और सब बातोंमें नं०२ में सिद्ध किया जा चुका है,तब अाजकलकी जानी । जानी आर्यावर्त के ही समान श्राचारके धारक हैं आर्यावर्त के ही समान हुई सारी दुनियाके मनुष्य भी सकलसंयमके पात्र ठहरते धर्मकर्म मी म्लेच्छका मताः। हैं। और चंकि सकलसंयमके पात्र वे ही हो सकते हैं जो अयथाऽन्यः समाचारैरार्यावर्तेन ते समाः ॥ उच्चगोत्री होते हैं, इसलिये अाजकलकी जानी हुई दुनिया -श्रादिपुराण पर्व ३१, श्लोक १४२ के सभी मनुष्योंको गोत्र-कर्मकी दृष्टिसे उच्चगोत्री कहना साथ ही, यह सिद्ध किया जा चुका है कि शक,यवन होगा-व्यावहारिक दृष्टिकी ऊँच-नीचता अथवा लोकमें शबर और पुलिन्दादिक जातिके म्लेच्छ आर्यखंडके ही प्रचलित उपजातियों के अनेकानेक गोत्रोंके साथ उसका अादिम निवासी (कदीमी बाशिन्दे) है-प्रथम चक्रवर्ती कोई सम्बन्ध नहीं है। भरतकी दिग्विजयके पूर्वसे ही वे यहां निवास करते हैं(४) अब रही म्लेच्छन्वण्ड ज म्लेच्छोंके सकल सं- म्लेच्छग्वंडोंसे श्राकर बसने वाले नहीं है । ऐमी हालतमें यमकी बात, जैन-शास्त्रानमार भरतक्षेत्रमें पांच म्लेच्छ. यद्यपि म्लेच्छग्वंड ज म्लेच्छोकी सकलसंयमकी पात्रताका और वे सब आर्यखण्डकी सीमाके बाहर हैं। विचार कोई विशेष उपयोगी नहीं है और उससे कोई ब्यावर्तमान में जानी हई दुनियांसे वे बहुत दूर स्थित है,वहां वहारिक नतीजा भी नहीं निकल सकता, फिर भी चंकि के मनुष्योंका इस दुनियाके साथ कोई सम्पर्क भी नहीं इस विषयकी चर्चा पिछले लेखोंमें उठाई गई है और है और न यहांके मनष्योंको उनका कोई जाती परिचय शास्त्री जीने अपने प्रस्तुत उत्तर-लेखमें भी उसे दोहराया ही है। चक्रवर्तियोंके समयमें वहाँके जो म्लेच्छ यहां है, अतः इसका स्पष्ट विचार भी या कर देना उचित याए थे वे अब तक जीवित नहीं हैं, न उनका अस्तित्व जान पड़ता है। नीचे उसीका प्रयत्न किया जाता है:-- इस समय यहां संभव ही हो सकता है और उनकी जो भी जयधवल नामक सिद्धान्त ग्रन्थमें 'मयमलब्धि' सन्ताने हई ये कभीकी श्रार्यों में परिणत हो चुकी है, उन्हें नामका एक अनुयोगद्वार (अधिकार) है। मकलमावद्य म्लेच्छखण्डोद्भव नहीं कहा जा सकता-शास्त्रीहीने भी। कर्मसे विरक्ति-लक्षणको लिये हुए पंचमहाबत,पंचममिति अपने प्रस्तुत लेखमें उन्हें क्षेत्र आर्य' लिखा है और और तीनगुमिरूप जो सकलसंयम है उसे प्राप्त होनेवालके अपने पूर्व लेखमें (अने० पृ० २०७) म्लेच्छरखण्डोंसे विशुद्धिपरिणामका नाम संयमलब्धि है और यही मुख्य.
SR No.538002
Book TitleAnekant 1938 Book 02 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1938
Total Pages759
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size105 MB
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