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________________ [ज्येष्ट, वीर-निर्वाण सं.२०६५ बीच श्री अजितप्रसादजी जैनकी कृपा हुई और उन्होंने पं० नाथूरामजी, बम्बईकी शान्त तथा अमृतवर्षिणी मी अपना अंग्रेजी जैन गज़ट भेजा,जिसे पढ़ना मैं कभी मूक सेवाके मूर्तिमान दर्शन करनेका भी २-४ बार भलता नहीं । इसका कलेवर छोटा होते हुए भी बहुत अवसर मिला। उन तथा उपादेय सामग्रीसे पूर्ण रहा करता है। जैनधर्मके महान सिद्धान्तोंको प्रत्यक्ष तथा परोक्ष ब्रह्मचारीजीका एकबारका चातुर्मास यहीं हुआ था। दोनों विधियोंसे अनुभूत कराया जा सकता है,पर लगनवे यहाँके प्रतिष्ठित कांग्रेसी भाई मथराप्रसादजी समैयाके की आवश्यकता है। मैने अनुभव किया है कि सहयोग, यहाँ ठहरे थे। कुछ व्याख्यानों में मैं सभापतित्व कर ही सामाजिक आदान प्रदान तथा साहित्यकी साहजिक चुका था । एक दिन ब्रह्मचारीजीकी श्राशा हुई कि मैं उपलब्धि बहुत हद तक इस धर्म परिचयकी अड़चनको ही फिर उस बैटकका सभापति होऊँ । दूसरे या तीसरे दूर कर देते हैं । साहित्य यदि प्राप्त कराया जावे दिनसे एक कल्लका मुकदमा शुरू होनेवाला था । मैं तो मुझे तो विश्वास है कि उसका उपयोग होना संकटमें पड़ा । संदेश-वाहकसे मैंने कहलवा दिया कि नितान्त आवश्यक सा ही होजाता है। हाँ, पात्रको पहिमेरा एक कलवाला मुकदमा शुरू होने वाला है, उसमें चाननेकी आवश्यकता है तथा पात्रता प्राप्त करानेके पैरवी करनेको थोड़ी तय्यारी बाकी रहगई है, इसलिये साधन जटानेको भी आवश्यता है और वे सहजमें उस दिन के लिये क्षमा करें । ब्रह्मचारीजीकी पुनः प्राशा ही जटते रहते हैं, रोज के जीवन में मिलने रहते हैंश्राई कि नहीं अाज तो श्राना ही पड़ेगा, वरना ब्रह्मचारी उनका उपयोग करके पात्रता प्राप्त कराई जा सकती है। जी खुद अपना दंड कमंडल लेकर आते हैं और यहींसे मुझे विविध धर्मों के अध्ययन में स्याद्वाद तथा उस धर्मके मुझे लेते हुए सभाभवन जावेंगे । मैं घबराया और शीघ्र विचारकोंके साहचर्य तथा साहित्यिक कृपासे बहुत ही साइकिलसे खबर भेजदी कि मैं स्वतः पाता हूँ मदद मिली है। किन्तु मुझे जल्दी ही छोड़दें । मैं बढ़ा और कार्य करना यदि प्रारंभिक धार्मिक विचारोंकी दुरूहताको जैनही पड़ा । ब्रहांचारीजी जब सागरमें होनेवाली परवार समाज अपरिमित सत्माहित्य द्वारा साध सके तो आगे ममामें पधारे थे तब मैंने भी उन्हें तँग किया था और का मार्ग तो स्वतः बन जाता है। और जब महान् मेरे इस आग्रह पर कि जैनधर्म मानवसमाजका हित सिद्धान्तोंके नीचे बैठ, एक बार कोई व्यक्ति अभिषिक्त सम्पादन करनेवाले कई अच्छे सिद्धानोंका जन्म-हेतु है। होजाता है तो वह स्वतः उनका एक जीवित प्रचार बन इसलिये उसके संबन्धमं श्राम व्याख्यान द्वारा जानकारी जाता है। कराई जावे, उन्होंने दयापूर्वक एक आम सभा कर जैनधर्मकी ओर मेरी प्रेम-प्रवृत्ति का यह बहुत ही सागरकी जनताको जैन सिद्धान्त समझाये थे । मुके संक्षिप्त तथा थोड़े कालका इतिहास है। बादके कालका मी 'कुछ टुट्टा फटा उस अवसर पर-कहना पड़ा था। कुछ समय पीछे फिर कभी लिखंगा। मैं समझता हूँ ब्रह्मचारीजी की कर्मठता उनका अथक प्रयास, कार्य धार्मिक संस्थान तथा धर्मके प्रचार-प्रेमियोको इस धीमी करने के लिये अनवरत शक्तिका संचार एक चमत्कृत किन्तु शाश्वत फलदायी प्रणालीकी अनुमतिमं हतोत्साह करनेवाली वस्तु हे । वैरिस्टर सा. चम्पतरायजीकी होनेका अवसर न रहेगा और बड़े बड़े गहन सिद्धान्तोंको विचारशैली तथा गहन विषयोंकी प्रतिपादन-सरलता वे कुछ समयमें ही जहाँ तहाँ बैठे हुए अनायास प्रात भी मेरे ऊपर अमर किये बगैर न रही। बीचमें प्रेमीजी कर सकेंगे।
SR No.538002
Book TitleAnekant 1938 Book 02 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1938
Total Pages759
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size105 MB
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