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________________ वर्ष २, किरण ] जैन-दृष्टिसे प्राचीन सिन्ध ५०६ माया ।वे लाचार उज्जयनी छोड़ते हैं, और अनेक जसा नामके एक दानी भावकने बड़ा उत्सव किया परिषहोंको सहते हुए सिन्धमें आते हैं । सिन्धु था। यहाँके श्रावकोंने एक मंदिर बनवाया और नदीको पारकर वे'साखी' राजाभोंसे मिलते हैं। ये उपाध्यायजीने उसकी प्रतिष्ठा की। 'साखी' वे कहे जाते हैं. जो 'सिथियन' के नामसे वि० सं० १२२ में इस महकोटमें जिन-पति प्रसिद्ध हैं। सिकन्दरके बाद 'सिथिअन' लोगोंने सूरिने तीन आदमियोंको दीक्षा दी थी। 'विज्ञप्ति सिन्ध जीता था। कालकाचार्य भिन्न-भिन्न स्थानोंमें त्रिवेणी' में मरूकोटको 'महातीर्थ' के नामसे संबोकुल ९६ 'साखी' राजामोंसे मिलते हैं, और उनको धित किया है। मालवा तथा दूसरे प्रान्त दिलानेकी शर्त पर वि० सं० १२८० में जिनचन्द्रसूरिने उपनगरसौराष्ट्र में होकर मालवेमें ले जाते हैं। गर्दभिल्लके में कुछ स्त्री-पुरुषोंको दीक्षा दी थी। साथ युद्ध होता है। गर्दभिलको गहीसे उतार दिया वि० सं० १२८२ में प्राचार्य सिद्धसूरिने उपजाता है । और उन 'शक' राजाओंको मालवा और नगरमें शाह लाधाके बनवाये 'हुए मंदिर की प्रतिष्ठा दूसरे दूसरे प्रान्त कालकाचार्य बाँट देते हैं। और की थी। उस समय वहाँ ७०० घर जैनोंके थे । स्वयं तो साधुके साधु ही रहते हैं। वि० सं० . १२९३ में प्राचार्य ककसूरिका ___इस तरह कालकाचार्यका सिन्ध देशमें आना चतुर्मास मरुकोट (मारोट ) में हुआ था। 'चोरयह पुरानी घटना है और जैनइतिहासमें एक डिया' गोत्रके शाह काना और मानाने सात लाखमनोखी वस्तु गिनी जाती है। का द्रव्य व्यय करके 'सिद्धाचलजी' का संघ वि० सं०६८४ में आचार्य देवगुप्तसूरिने सिन्ध निकाला था। प्रान्तके राव गोसलको उपदेश देकर जैन बनाया वि० सं०१३०९ में सेठ विमल चन्द्रने जिनेश्वरथा। इसकी परंपरा विक्रमकी चौदहवीं शताब्दि सूरिके पास नगरकोटमें प्रतिष्ठा करवाई थी। तक सिन्धमें थी। आखिर उसकी पेढीमें 'लणा- वि० सं०१३१७में प्राचार्य देवगुप्तसूरि सिन्धमें शाह' नामका गृहस्थ हुआ. जो मारवाड़में चला आये और रेणुकोटमें चतुर्मास किया। ३०० घर गया और उसका कुल 'लुणावत' के नामसे प्रसिद्ध नये जैनोंके बनाये और महावीरस्वामीके मंदिरकी हुआ। प्रतिष्ठा की। वि०सं० ११३०के आसपास मरुकोटमें जो कि वि० सं० १३४५ में प्राचार्य सिद्धिसूरिके श्राअभी मरोट' के नामसे प्रसिद्ध है, जिनवल्लभसूरिने झाकारी जयकलश उपाध्यायने सिन्धमें बिहार करके एक मंदिरकी प्रतिष्ठा की थी, और उपदेशमालाकी बहुतसे शुभ कार्य कराये थे। एक गाथा पर ६ महीने तक व्याख्यान दिया था। वि० सं० १३७४में देवराजपुरमें राजेन्द्र चन्द्राइस शताब्दीमें जिनभद्र उपाध्यायके शिष्य-वाचक चार्यका 'प्राचार्यपद' और बहुतोंकी दीक्षा हुई थी। पद्मप्रभ भी त्रिपुरादेवीकी आराधना करनेके वि० सं० १३८४में जिनकुशलसूरिने क्यासपुरमें लिये सिन्धमें आये थे । वे डंभरेलपुरमें गये थे। और रेणुका कोटमें प्रतिष्ठा की थी।
SR No.538002
Book TitleAnekant 1938 Book 02 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1938
Total Pages759
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size105 MB
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