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अनेकान्त
[आषाढ़, वीर-निर्वाण सं०२४६५
तक वहाँ स्थिरता करके उत्सव करके पीलुडीके जैनाचार्योंकी लिखी हुई प्राचीन पट्टावलियों झाडके नीचे गोडीजीके पगले स्थापन करके, संघ और प्रशस्तियोंमें ऐसे सैंकड़ों प्रमाण मिलते हैं कि वापिस राधनपुर लौट आया।
जिनसे जैनाचार्योंके सिन्धमें विचरनेके उल्लेख इस स्तवनकी हस्तलिखित प्रति शान्तमूर्ति पाये जाते हैं। प्राचीनसे प्राचीन प्रमाण वि. सं. मुनिश्री जयचन्दविजयजी महाराजके पास है। पूर्व प्रायः ४०० के समयका है। जिस समय रत्न
इसके अलावा प्राचीन तीर्थ मालाओंसे भी प्रभसूरिके पट्टधर यक्षदेवसूरि सिन्धमें आये थे गोडीजीका मुख्यस्थान सिन्ध होना मालूम और सिन्धमें आते हुए उनको भयंकर कष्टोंका पड़ता है। आज तो गोडी पार्श्वनाथकी मूर्ति प्रायः मुकाबला करना पड़ा था। इस यक्षदेव सूरिके कई मंदिरोंमें देखनेमें आती है।।
उपदेशसे कक्क नामके एक राजपुत्रने जैनमंदिर आजका उमरकोट एक वक्त सिन्धमें जैनोंका निर्माण किये थे और बादको दीक्षा भी ली थी। मुख्य स्थान था। आज भी वहाँ एक मंदिर और कक्कसूरिके समयमें मरुकोटके किलोंकी जैनोंके करीब पन्द्रह घर मौजूद हैं।
खुदाई करते हुए नेमिनाथ भगवानकी मूर्ति मीरपुर खासके नजदीक 'काहु जो डेरो' का निकली थी। उस वक्त मरुकोटका मांडलिक राजा स्थान कुछ वर्षों पहले खोदनेमें आया था, उसमेंसे काकू था। उसने श्रावकोंको बुलाकर मूर्ति दे दी बहुत प्राचीन मूर्तियाँ निकली हैं। उनमें कुछ जैन थी। श्रावकोंने एक सुन्दर मंदिर बनवाया और मूर्तियाँ होनेकी भी बात सुनी है।
ककसूरिके हाथसे उसकी प्रतिष्ठा करवाई। मारवाड़की हुकूमतमें गिना जाने वाला विक्रम राजाके गद्दी पर आनेके पहलेकी एक जूना बाडमेर और नया बाडमेर ये भी एक समय बात इस प्रकार हैजैनधर्मकी जाहोजलालीवाले स्थान थे; ऐसा मालवेकी राजधानी उज्जयनीका राजा गर्दवहाँके मंदिर और प्राचीन शिलालेख प्रत्यक्ष भिल्ल महाअत्याचारी था। जैन साध्वी सरस्वतीको दिखला रहे हैं।
अपने महलमें उठा ले गया। जैन-संघने गर्दभिक्षको इसके अलावा दूसरे ऐसे अनेक स्थान हैं कि बहुत समझाया, लेकिन वह नहीं माना। उस वक्तके जहाँसे जैनधर्मके प्राचीन अवशेष मिलते हैं। . महान् आचार्य कालकाचार्यन भी बहुत कोशिश
जिस देशमें जैनधर्मके प्राचीन स्थान मिलते की, लेकिन वह गर्दभिल्ल न समझा । आखिरमें हों, जिस देशमें मंदिर और मूर्तियों के प्राचीन कालकाचार्यने प्रतिज्ञा की कि-'राजन् ? गद्दीसे अवशेष दृष्टिगोचर होते हों, उस देशमें किसी उखेड़ न डालूँ, तो जैनसाधु नहीं ।' त्यागीसमय जैनसाधुओंका बिहार बड़े परिमाणमें हुआ जैनाचार्य प्रजाके पितृतुल्य गिने जानेवाले राजाका हो यह स्वाभाविक है। और जहाँ जहाँ जैनसाध यह अत्याचार सहन नहीं कर सके । राजाकी विचरे हों, वहाँ वहाँ कुछ न कुछ धार्मिक पाशविकतामें प्रजाकी बहन-बेटियोंकी पवित्रता प्रवृत्तियां हुई हों, यह भी निःसंदेह है। कलङ्कित होती देखकर कालकाचार्यका खून उबल