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________________ मुक्ति और उसका उपाय [.-बाबा भागीरथजी जैन पी] सक्ति जोवकी उस पर्यायविशेषका नाम है जि- पराधीनतामें कहीं भी सुख नहीं है। स्वाधीनता ही उसके बाद फिर कोई संसार-पर्याय नहीं होती। सच्ची सुख-अवस्था है और वह यथार्थमें मुक्तिमुक्तिपर्याय सादि-अनन्तपर्याय है । इस पर्यायमें स्वरूप ही है । संसारमें अन्य जितनी भी अवस्थाएँ सूक्ष्म स्थूल शरीरसे तथा प्रष्ट कर्ममलसे रहित हैं वे सब पराश्रित एवं दुःखरूप हैं । अतः मुक्तिकी हुआ आत्मा अनन्तहान, अनन्तदर्शन, अनन्तसुख प्राप्तिका उपाय करना सज्जनोंका परम कर्तव्य है। तथा अनन्तवीर्यरूप स्व-स्वभावमें स्थिर रहता है। उस मुक्तिका उपाय परम निग्रंथोंने संक्षेपमें सम्यग्दउसकी विभाव-परिणति सदाके लिये मिट जाती है। र्शन,सम्यग्ज्ञान और सम्यकचारित्र बतलाया है। स्ववह अपने स्वरूपमें लीन हुआ लोकके अप्रभागमें द्रव्य-क्षेत्र-काल-भावरूपसे आत्माकी विनिश्चितिकोतिम्ता है और संसारकी जितनी अवस्थाएँ हैं उन यथार्थ श्रद्धाको–'सम्यग्दर्शन' उसके यथार्थबोधको सयको जानता-देखता है; परन्तु किसी भी अवस्था- 'सम्यग्ज्ञान' और आत्मास्वरूपमें स्थिरताकोरूप परिणत नहीं होता और न उनमें राग-द्वेष ही उससे विचलित न होने अर्थात् विभाव परिणतिकरता है। जीवकी इस अवस्थाको ही परम निरं रूप न परिणमनेको 'सम्यकचारित्र' कहते हैं। इन जन सिद्धपर्याय कहते हैं । इस पर्यायको प्राप्त करने रूप प्रात्माकी परिणति होनेसे किसी भी प्रकारका की शक्ति प्रत्येक संसारी प्रात्मामें होती है। परन्तु बन्धन नहीं होता है। जैसा श्रीअमृतचन्द्राचार्य के उसकी व्यक्ति योग्य कारण-कलापके मिलने पर निम्न वाक्यसे प्रकट है:भव्यात्माओंको ही हो सकती है। दर्शनमात्मविनिबितिरात्मपरिज्ञानमिष्यते गोषः। __ मुक्तिको प्रायःसभी दूसरे दर्शन भी मानते हैं। स्थितिरात्मनि चारित्रं कुत पतेभ्यो भवति बन्धः । परन्तु मुक्तिके स्वरूप और उसकी प्राप्ति के उपाय पुरुषार्थसिद्धयुपाय, २१६ कथनमें वे सब परस्पर विसंवाद करते है और पारमार्थिक दृष्टिसे यही मोक्षका उपाय है। यथार्थ निर्णय नहीं कर पाते । यथार्य निर्णय वीर. व्यवहार मोक्षमार्ग इसी निश्चय मोक्षमार्गका भगवान के शासनमें ही पाया जाता है । वस्तुतः साधक है। जो व्यवहार निश्चयका साधक नहीं, मुक्तिकी इच्छा सब ही प्राणियोंके होती है-बन्धन वह सम्यक व्यवहार न होकर मिथ्या व्यवहार है तथा परतंत्रता किसीको भी इष्ट नहीं है क्योंकि और त्याज्य है।
SR No.538002
Book TitleAnekant 1938 Book 02 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1938
Total Pages759
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size105 MB
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