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________________ वर्ष २, किरण ११] जैन और बौरधर्म एक नहीं ५६७ अर्थात्-अपने उपकार-द्वारा जगतको सदा कृतार्थ दीर्घतपम्वीने उत्तर दिया, तीन-कायदण्ड, बचोदण्ड करनेवाले ऐसे आपको छोड़कर अन्यवादियोंने अपने और मनोदण्ड । बुद्धने पूछा इन तीनोंमें किसको महाभांसका दान करके व्यर्थ ही कृपालु कहे जानेवाले की सावद्यरूप कहा है ? दीर्घतपस्वीने कहा कायदण्डको । क्यों शरण ली, यह समझमें नहीं पाता । ( यह कटाक्ष बादमें दीर्घतपस्वीने बुद्धसे प्रश्न किया, आपने कितने बुद्धके ऊपर है)। दण्डोंका विधान किया है ? बुद्ध ने कहा, कायकम्म, ___ इतना ही नहीं, बुद्ध और महावीर के समयमें भी वचीकम्म और मनोकम्म; तथा इनमें मनोकम्मको मैं जैन और बौद्धों में कितना अन्तर था. कितना वैमनस्य महासावद्यरूप कहता हूँ। इसके पश्चात् दीर्घतपस्थी था, यह बात पाली ग्रन्थोंसे स्पष्ट हो जाती है। यदि महावीरके पास आये। महावीरने दीर्घतपस्वीका साधदोनों धर्मों में केवल वस्त्र रखने और न रखनेके ही ऊपर याद किया, और जिनशासनकी प्रभावना करने के लिये वाद-विवाद था, तो बुद्ध महावीर के अन्य सिद्धांतोंका उसकी प्रशंसा की। उस समय वहाँ गृहपति उपालि भी कभी विरोध न करते; उन्हें केवल महावीर की कठिन बैठे थे । उपालिने महावीरसे कहा कि आप मुझे बद्धके चर्याका ही विरोध करना चाहिये था, अन्य बातोंका पास जाने की अनुमति दें, मैं उनसे इस विषय में विवाद नहीं। 'मज्झिमनिकाय' के 'अभयराजकुमार' नामक करूँगा; तथा जैसे कोई बलवान पुरुष भेडके पचेको सुत्तमें कथन है कि एकबार निगएठ नाटपुत्त (महावीर) उठाकर घुमा देता है, फिरा देता है, उसी तरह मैं भी ने अपने शिष्य अभयकुमारको बुद्ध के साथ वाद-विवाद बुद्धको दिलादूंगा, उनको परास्त कर दूंगा । इस पर करनेको भेना। अभयकुमारने बुद्धसे प्रश्न किया कि दीर्घतपस्वीने महावीरसे कहा कि, भगवन् ! बुद्ध मा क्या श्राप दूसरोंको अप्रिय लगनेवाली वाणी बोलते हैं ! यावी है, वे अपने मायाजालम अन्य तीथिकोको अपना बुद्धने विस्तृत व्याख्या करते हुए उत्तर दिया कि अनुयायी बना लेते हैं,अतः आप उपालिको वहाँ जानेबुद्ध 'भूत, तच्छ (तथ्य) और अत्यसहित' वचनोंका की अनुमति न दें । परन्तु दीर्घतपस्वीके कथनका कोई प्रयोग करते हैं, वे वचन चाहे प्रिय हो वा अप्रिय । प्रभाव नहीं हुआ, और उपालि बुद्धसे शास्त्रार्थ करने बुद्ध के उत्तरसे संतुष्ट हो अभयकुमारने कहा 'मनस्तुं चल दिये । उपालि बुद्धसे प्रश्नोत्तर करते हैं, और बुद्धनिगला' (अनश्यन् निर्ग्रन्थाः ) अर्थात् निग्रंथ नष्ट के अनुयायी हो जाते है । अब उन्होंने अपने द्वारपालसे हो गये। कह दिया कि आजसे निग्रंथ और निग्रंथिगियोंके लिये महावीर और उनके अनुयायियोंका चित्रण बौद्धोंके मेरा द्वार बन्द है, और अब यह द्वार मैंने बौद्ध भिक्षु पाली ग्रंथोंमें किम तरह किया गया है, यह बतानेके और भिक्षुणियोंके लिये खोल दिया है (मजतम्गे सम्म लिये हम मज्झिमनिकायके उपालिमुत्त का सारांश नीचे दोबारिक,मावरामि द्वारं निगराठानं, निगराठीमं; प्रमा देते हैं वटं द्वारं भगवतो मिक्खून मिक्नुणीनं, उपासकाना, एकबार दीर्घतपस्वी निग्रंथ बुद्ध के पास मये । बुद्धने पासिकानं)। इतना ही नहीं, उपालिने द्वारपालसे प्रश्न किया, निग्रंथ ज्ञातपुत्र ( महावीर ) ने पाप कर्मों कहदिया कि यदि कोई निग्रंथ साधु आये तो उसे अन्दर को रोकनेके लिये कितने दण्डोंका विधान किया है। पाने के लिये रोकना, और कहना कि उपालि माजसे
SR No.538002
Book TitleAnekant 1938 Book 02 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1938
Total Pages759
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size105 MB
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