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________________ ५६६ अनेकान्त [माद्रपद, वीर-निर्वाण सं०२४६५ - - जबकि जैन ग्रंथोंमें कहीं इस बातका नाम-निशान भी आगे चलकर 'लंकावतार' सूत्रसे ढेरके ढेर मांस-निषेधनहीं। यह होसकता है कि बुद्धने अमुक प्राणियोंके मांस- के उद्धरण पेश किये हैं। किन्तु शायद उन्हें यह ज्ञान भक्षण करने की आज्ञा न दी हो, जैसे यहूदी आदि धर्मों- नहीं कि लंकावतार सूत्र महायान बौद्ध सम्प्रदायका ग्रंथ में भी पाया जाता है, पर मांसाहारका उन्होंने सर्वथा है, और वह संस्कृतमें है; जबकि बुद्धके मूल उपदेश निषेध नहीं किया । मज्झिमनिकायके जीवकसुत्तमें पालीमें हैं और 'मज्झिमनिकाय' पाली-त्रिपिटकका अंश जीवकने बुद्धसे प्रश्न किया है कि भगवन् ! लोग कहते है। बौद्धधर्मके उक्त आचार-विचारकीजैनधर्मके प्राचारहैं कि बुद्ध उद्दिष्ट भोजन स्वीकार करते हैं वे उद्दिष्ट से तुलना करना, यह लोगोंकी आँखोंमें धूल झोंकना मांसका श्राहार लेते हैं, क्या ऐसा कहने वाले मनुष्य है। वस्तुतः बात तो यह है कि बुद्ध अपने धर्मको सार्व आपकी और आपके धर्मकी निन्दा नहीं करते, अवहेलना भौमधर्म बनाना चाहते थे, और इसलिये वे मांसनिषेध नहीं करते ? इसके उत्तरमें बुद्ध कहते हैं की कड़ी शर्त उसमें नहीं लगाना चाहते थे। परन्तु "न मे ते कुत्तवादिनो अम्भाचिक्खंति च पन मं ते महावीर इसके सख्त विरोधी थे। असाता अभूतेन । तीहि खो अहं जीवक ठाने हि मंसं ब्रह्मचारी जीने एक और नई खोज की है। उनका अपरिभोगं ति वदामिः-दिलु, सुतं, परिसंकितं । कथन है कि "बुद्धने महावीरकी नग्न मुनिचर्याको कठिन इमेहि खो अहं जीवक तीहि ठानेहिमंसं अपरिभोगं ति समझा, इसलिये उन्होंने वस्त्रसहित साधुचर्याकी प्रवृत्ति वदामि । तीहि खो महं जीवक ठाने हि मंसं चलाई; तथा मध्यममार्ग जो श्रावकों व ब्रह्मचारी श्रावको परिमोगं ति वदामिः-अदिलं, असुवं, अपरिसंकितं । का है, उसका प्रचार गौतम बुद्धने किया-मिति एक इमेहि खो भहं जीवक तीहि ठानेहि मंसं परिभोगं ति रक्वा ।" ब्रह्मचारीजीकी स्पष्ट मान्यता है कि जैनधर्म और बौद्धधर्मके सिद्धांतोंमें कोई अंतर नहीं-अंतर सिर्फ अर्थात् यह कहने वाले मनुष्य असत्यवादी नहीं, इतना ही है कि महावीरने नग्न-चर्याका उपदेश दिया, वेधर्मकी अवहेलना करने वाले नहीं हैं; क्योंकि मैने तीन जब कि बुद्ध ने सवस्त्र-चर्याका । यदि ऐसी ही बात है तो प्रकारके मांसको भक्ष्य कहा है-जो देखा न हो (अदिव) फिर बौद्धधर्म और श्वेताम्बर जैनधर्ममें तो थोड़ा भी सुना न हो ( असुत ), और जिसमें शंका न हो (अपरि- अन्तर न होना चाहिये। किन्तु शायद ब्रह्मचारीजीको संकित)। मालम नहीं कि जितनी कड़ी समालोचना बौद्धधर्मकी बड़ा आश्चर्य है कि बुद्धका माँस-संबंधी उक्त स्पष्ट दिगम्बर शास्त्रों में मिलती है, उतनी ही श्वेताम्बर ग्रंथों में पचन होनेपर भी ब्रह्मचारी जी उक्त वचनके विषयमें भी है । महावीरकी स्तुति करते हुए. अयोगव्यवच्छेद शंका करते हुए लिखते हैं “यह वचन कहाँ तक ठीक द्वात्रिंशिकामें हेमचन्द्रप्राचार्यने बुद्धकी दयालुताका उपहै, यह विचारने योग्य है ।" भले ही उक्त कथन ब्रह्म- हास करते हुए उनपर कटाक्ष किया है। वह श्लोक चारीजीके विचारमें न बैठता हो, पर कथन तो अत्यंत निम्न रूपसे है:स्पष्ट है । पर ब्रह्मचारीजी तो किसी भी तरह जैन और जगत्यनुभ्यामवलेन शश्वत् कृतार्थयत्सु प्रसभंभवत्सु । बौद्धधर्मको एक सिद्ध करनेकी धुनमें है । ब्रह्मचारीजीने किमाभितोऽन्यैःशरणं त्वदन्यः स्वमासदानेन वृथाकृपालुः।। वदामि"
SR No.538002
Book TitleAnekant 1938 Book 02 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1938
Total Pages759
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size105 MB
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