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________________ २९२ भनेकान्त [ फाल्गुण, वीर-निर्वाण सं० २४६५ - दृढ़-स्वर में उत्तर दिया ! जैसे उन्हें इच्छित-विजय प्राप्त क्या मेरी बहिन के साथ-साथ आपकी भी बिदा हुई हो। होगी. . .?....--साश्चर्य, विस्फारित-नेत्रों से राजकुमार'लेकिन...!---अस्फुट, भग्न-वाक्य बज्रबाहुके की ओर देखते हुए उदयमुन्दरने कहा! मुँहसे निकला । और वह कुछ सोचने लगे ! जैसे हृदयमें हां ! मैं भी उसके साथ ही चलंगा !... क्षीर-फेन उठ रहा हो, कुछ ठेस लगी हो ! मनो-वेदना- विदा...! विदा टल नहीं सकती, 'मैं बगैर उसके रह नहीं ने मुखाकृति पर व्याघात किया ! सकता ! और उपाय नहीं !'-उदास-चित्त, गंभीरतालेकिन...? लेकिन महाराज विवेकशील हैं ! पूर्वक बज्रवाह बोले। वृद्ध-पुरुप हैं ! उन्होंने बहुत ज़माना देखा है ! वे वाह ! अरे, ज़रा सोचिये तो इसमें आपका मर्यादा नहीं उलङ्घ सकते ।'-उदय सुन्दरने अपनं कितना अपयश होगा ? --लोगों की आपके लिए कैसी पक्षकी मज़बूती सामने रखी ! मगर इसने बज्रबाहुके धारणा बनेगी?-दूपित ही, न ?.. 'फिर लाभ क्या ?सुनहरे-स्वप्नोंका ध्वंश कर दिया । वह तिलमिला उठे! दो दिन बाद भी तो आप आ सकते हैं !... उदय 'तो...? - तो बिदा होगी ही ? • लेकिन यह तो मुन्दरने दलील पेश की। मेरे लिए अन्याय है ! मेरी कोमल-भावनाओं का हनन मौन ! शोक-शील, चिन्ता-पर्ण मदा ! फिर है ! मेरी जीवन-पहेली का निरादर है ! मौत है, सरासर बाष्पाकुलित-कण्ठ से वह बोले--'दो-दिन...? श्रोष ! मौत ! नहीं, मैं एक क्षण भी एकाकी जीवन बितानेके दो-दिन ! मैंने कहा न, मैं उसके बिना क्षण-भर भी लिए समर्थ नहीं !'–बज्रबाहुके उत्तजित हृदयसे प्रगट नहीं रह सकता !...समझते नहीं उदयसुन्दर ! लोग हुमा ! कहेंगे, जो उनका मन कहेगा! और मैं करूँगा, जो उदयसुन्दर खिलखिलाकर हंस पड़ा! उसकी मेरे मनकी होगी। मन. गलामका भी स्वतंत्र हँसीमें व्यंग था ! उपेक्षा थी !! और थी चुभने वाली होता है।' 'तो अन्तिम निर्णय...?' ___.. खूब ! तो क्या कीजिएगा ?--वृद्धि-पितामह- यही कि मैं भी साथ-साथ चलंगा! ज्योत्स्नास की भाशा भंग ?..."-हँसी पर काबू करते हुए साले- शशि जुदा रह नहीं सकता !' साहिब ने फर्माया ! 'आपकी इच्छा!' अवाक! क्षण-भर पूर्ण शान्ति !! तरुण-हृदयोंमें सदा बसन्त रहता है। लेकिन फिर बसुन्धरा एक वर्ष बाद अपने वक्षस्थल पर उसे फलते'कदापि नहीं...!' फुलते देखती है। 'तब...?' कितना मनोमुग्धकर था मधु-ऋतुका शुभागमन ! 'मैं भी साथ चलूंगा ....!' प्रकृति-सुन्दरीने जैसे किसी प्रशत्-लोककी सुषमाऐं ..! भापभी साथ चलेंगे-क्या मतलब - का चित्रण किया हो । चतुर्दिक नेत्र-प्रिय सौन्दर्य कसक !!!
SR No.538002
Book TitleAnekant 1938 Book 02 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1938
Total Pages759
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size105 MB
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