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वर्ष २, किरण
भगवती आराधना और शिवकोटि
इस प्रशस्तिमें आर्य जिननन्दिगली आदि जिन जं भरणाली कम्मखदि भक्सवसहस्सकोसीहि । तीन गुरुत्रोंका नामोल्लेख है, वे कौन है, कब हुए है, तं पाणी तिहि गुत्तों सवेदि अंतोमुहत्तेख ॥ उनकी गुरुपरम्परा और गण-गच्छादि क्या है ? इत्यादि
-भग० प्रा०, १०८ बातोंको जाननेका भी कोई साधन उपलब्ध नहीं है । हाँ, इसी तरहकी स्थिति गाथा में० १९८४, १२०६, द्वितीय गाथामें प्रयुक्त हुए ग्रन्थकारके 'पाणिदलभोइसा' १२०७, १२१०, १८२४ की समझनी चाहिये, जो कुछ इस विशेषणपदसे इतनी बात स्पष्ट हो जाती है कि परिवर्तनादिके साथ चारित्र प्राभूतकी गाथा +० ११, प्राचार्य शिवकोटिने इस ग्रन्थकी रचना उस समय की ३२. ३३, ३५ और पंचास्तिकायकी गाथा २०६४ तथा है जब कि जैनसंघमें दिगम्बर और श्वेताम्बर भेइको प्रवचनसारके द्वितीय अध्यायकी गाथा नं. ७६ परसे उत्पत्ति हो गई थी। उसी भेदको प्रदर्शित करनेके लिये बनाई गई जान पड़ती है। ग्रन्धक ने अपने साथ उक्त विशेषण-पदका लगाना इस सब कथनसे शिवकोटिका कुन्दकुन्दाचार्यके उचित समझा है।
बाद होना पाया जाता है। इसके सिवाय, अन्यमें उमा'भगवती आराधना में प्राचार्य कुन्दकुन्दके ग्रन्थोंकी स्वाति के तत्त्वार्थसूत्रका भी कई जगह अनुकरण किया कुछ गाथाएँ ज्योंकी त्यों रूपसे पाई जाती हैं । जिनका गया है। उदाहरण के लिये निम्न गाथाको ही लीजिये:एक नमूना इस प्रकार है
भरासाभवमोदरियं रसपरिचाभो य बुत्तिपरिसंखा । दंसबभट्टा भट्टा दंसणभट्टस्स गस्थि शिवाणं । कायस्स च परिताको विवित्तसयपासणं घट्ट । सिझति चरियभट्टा दंसणभट्टा ए सिझति ॥
-गाथा नं० २०८ भगवती श्राराधनामें नं० ७३८ पर पाई जाने वाली यह गाथा तत्त्वार्थसूत्र अध्याय नं०६ के निम्न सूत्र यह गाथा कुन्दकुन्दके दर्शनप्राभृतकी तीसरी गाथा है। से बनाई गई जान पड़ती हैइसी प्रकार कुन्दकुन्दके नियमसारकी दो गाथाएँ नं०६६, "अनशनावमौदर्यवृत्तिपरिसंख्यानरसपरित्याग७० भगवतीअाराधनामें क्रमशः नं०११८७, ११८८ पर, विविक्तशय्यासनकायक्लेशा बाह्यं तपः ॥१६॥" चारित्रप्राभूतकी ३६ वी गाथा नं० १२११ पर और
इसी प्रकारकी और भी कुछ गाथाएँ हैं, जिनमें वारसअणुवेक्खाकी दूसरी गाथा नं० १७१५ पर ज्यों
उमास्वातिके सूत्रोंका सष्ट अनुकरण जान पड़ता है। की त्यों पाई जाती है । इनके अतिरिक्त कुछ गाथाएँ
सात शिक्षाबतों वाले सूत्रके अनुसरण की बात ऊपर, ऐसी भी हैं जो थोड़ेसे पाठभेद या परिवर्तनादिके साथ
बतलाई ही जा चुकी है। उपलब्ध होती है। ऐसी गाथाओंका एक नमना इस प्रकार है
श्राचार्य शिवकोटिके सामने समन्तभद्रस्वामीके
ग्रन्थोंका होना भी पाया जाता है, क्योंकि इस प्रन्थमें जं भगवाणी कम्मं खवेदि भवसयसहस्सकोडीहि ।
बृहत्स्वयंभूस्तोत्रके कुछ पद्योंके मावको अनुवादित किया तं पाणी तिहिं गुत्तो खवेदि उस्सासमेत्तेण ॥ गया है-टीकाकारने भी उसके समर्थनमें स्वयंभूस्तोत्रके
-प्रवचनसार, ३, ३८ वाक्यको उद्धृत करके बतलाया है। यथा: