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वर्ष २ किरण १] श्रीकुन्दकुन्द और यतिवृषभमें पूर्ववर्ती कौन ? कुन्दकुन्द यतिवृषभके बाद हुए हैं।
की टीका कुन्दकुन्दकी कृति न होकर उनके शिष्य कुन्दकुन्दको यतिवृषभके बादका विद्वान कुन्दकीर्ति द्वारा लिखी गई है-कुन्दकीर्तिका नाम बतलानेवाला यदि कोई भी प्रमाण है तो वह कुन्दकुन्दके शिष्य रूपमें अन्यत्र कहींसे भी मुख्यतया इन्द्रनन्दि-श्रुतावतारका उक्त उल्लेख उपलब्ध नहीं होता । जान पड़ता है विबुध श्रीधरने है। विबुध श्रीधरका कथन उसको पुष्ट जरूर करता योंही इधर-उधरसे सुन-सुनाकर कुछ बातें लिखदी है परन्तु वह स्वयं अन्य प्रकारसे बहुत कुछ आपत्तिके हैं-उसे किसी अच्छे प्रामाणिक पुरुषसे ठीक योग्य है। उसमें प्रथमतो कषायप्राभृतको ज्ञानप्रवाद
परिचय प्राप्त नहीं हुआ। और इसलिये उसके पूर्वकी त्रयोदशम वस्तुके अन्तर्गत किया है.जबकि उल्लेखपर कोई विशेष जोर नहीं दिया जासकता स्वयं श्री गुणधराचार्यने “पवम्मि पंचमम्मिद और न उस प्रमाणकोटि में ही रक्खा जासकता है। 'दसमे वत्थुम्मि पाहुडे तदिये" इस सूत्रगाथा- अब देखना है, इन्द्रनन्दीके श्रुतावतारका वह वाक्यके द्वारा उसे दशमवस्तु का तृतीय प्राभत उल्लेख कहाँ तक ठीक है जो प्रचलित मान्यताका बतलाया है। दूसरे, यतिवृपभको गुणधरा- मुख्य आधार बना हुआ है। कुछ असे पहले मैं चार्यका साक्षात शिष्य बतला दिया है, जबकि समझता था कि वह ठीक ही होगा; परन्तु उसकी गुणधर-सूत्र गाथाओंकी वृहट्टीका 'जयधवला' विशेष जाँचके लिये मेरा प्रयत्न बरावर जारी रहा नागहस्ति तकको गुणधराचार्यका साक्षात शिष्य है। हालमें विशेष साहित्यके अध्ययन-द्वारा मुझे नहीं बतलाती और यतिवृषभ अपनी चर्णिमें भी यह निश्चित होगया है कि इन्द्रनन्दीने अपने पद्य कहीं अपनेको गुणधराचार्यका साक्षात शिष्य नं० १६० में द्विविधसिद्धान्त' के उल्लेख-द्वारा सूचित नहीं करते; प्रत्युत इसके सूत्रगाथाओंपर यदि कपायप्राभृतको उसकी टोकाओं-सहित कुन्दहोनेवाले पूर्ववर्ती आचार्योंके अर्थभेद अथवा कुन्दतक पहुँचाया है तो वह जरूर ही ग़लत है मतभेदको प्रकट करते हैं, जिससे वे गुणधराचार्यसे और किसी ग़लत सूचना अथवा ग़लत-झहमीका बहुत-कुछ बादके ग्रंथकार मालूम होते हैं और परिणाम है। निःसंदेह, श्रीकुन्दकन्दाचार्य यतिवृतीसरे चूर्णिके टीकाकारका नाम 'समुद्धरण' और पभसे पहले हुए हैं। नीचे इन्हीं सब बातोंको उस टीकाका नाम समुद्धरण-टीका घोषित किया
स्पष्ट किया जाता है:है, जबकि 'जयधवला' में पचासों जगह उक्त टीका- (१) इन्द्रनन्दीने यह तो लिखा है कि गुणधर परसे वाक्योंको उद्धृत करते हुए वीरसेन-जिनसेना- और धरसनाचार्योंकी गुरुपरम्परा का पूर्वाऽपरक्रम चार्योंने उसे उच्चारणाचार्यको कृति, टीकाका नाम उस मालम नहीं है; क्योंकि उनके वंश का कथन 'उच्चारणावृत्ति' और उसके वाक्योंको उच्चारणासूत्र' के नामसे उल्लेखित किया है। ऐसी मोदी करने वाले शास्त्रों तथा मुनिजनोंका उस समय मोटी भूलोंके कारण विबुध श्रीधरकी इस बात पर अभाव है। परन्तु दोनों सिद्धान्तग्रन्थों के अवतारभी सहसा विश्वास नहीं होता कि 'परिकर्म' नाम का जो कथन दिया है वह भी उन ग्रन्थों तथा
+ गुणधर-धरसेनान्वयगुर्वोः पूर्वापरक्तमोऽस्माभिर्न ज्ञायते तदन्वमकथकागम-मुनिजनाभावात् ॥१५०॥