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________________ अनेकान्त [कार्तिक, वीर-निर्वाण सं० २४६५ णाहं होमि परेसिंण मे परे संतिणाणमहमेक्को। यह गाथा त्रिलोकप्रज्ञप्ति के उक्त वे अधिमिनोभायाविभागोमो तिभाटा कारमें नं० २७ पर दी हुई है, सिर्फ 'णाणमइश्रो -प्रवचनसार, २-६६ सदा' के स्थानपर णाणप्पगासगा' पाठ दिया है, जिसमें अर्थभेद प्रायः कुछ भी नहीं है। 'त्रिलोकप्रज्ञाप्त' के उक्त अन्तिम अधिकारमें यह गाथा ज्यों की त्यों नं० ३५ पर दी है। और खधं सयलसमत्थं तस्स दुअलु भणंति देसो त्ति २५ वे नम्बर पर इसी गाथाके पहले तोन चरण । अद्धवद्धं च पदेसा परमाणू चेवअविभागी । देकर चौथा चरण 'सो मुच्चइ अट्ठकम्मेहि' बना एयरसवण्णगंधं दोफासं सद्दकारणमसद्द। दिया है । इस तरह एकही अधिकार में इस गाथा खंधंतरिटं दव्वं परमाण तं वियाणेहि ॥ की पुनरावृत्ति कीगई है। --पंचास्तिकाय ७५, ८१, एवं णाणप्पाणं दंसणभूदं अदिदियमहत्थं । कुन्दकुन्दकी ये दोनों गाथाएँ त्रिलोकप्रज्ञप्ति के धुवमचलमणालंबं मण्णे हं अप्पगं सुद्ध ॥ प्रथमाधिकारमें क्रमशः नं० ६५ और ६७ पर प्रायः -प्रवचनसार, २-१०० ज्योंकी त्यों पाई जाती हैं, दोनों का सिर्फ चौथा चरण यह गाथा, जो पूर्वोक्त गाथाके अनन्तर की वदला हुआ है-अर्थात् पहलीका चौथा चरण सुसम्बद्ध गाथा है, त्रिलोकप्रज्ञप्ति के उक्त अधिकार- 'अविभागी होदि परमारणू' और दूसरीका में पहले नं० ३४ पर दी है इसमें सिर्फ "मण्णोहं 'तंपरमाणु भणंति बुधा' दिया है, जिससे कोई अप्पगं" के स्थानपर 'भावेयं अप्पयं' पाठ बना अर्थभेद नहीं होता और जिसे साधारण पाठभेद भी दिया गया है। जो एवं जाणित्ता झादि परं अप्पगं विसुद्धप्पा। ऐसी हालतमें यह नहीं कहा जासकता कि सागारोऽणागारो खवेदि सो मोहदग्गंठिं॥ त्रिलोकप्रज्ञप्तिपर से कोई भी वाक्य कुन्दकुन्दके -प्रवचनसार २-१०२ किसी ग्रंथमें उद्धृत किया गया है । कुन्दकुन्द - और यतिवृषभ की रचनामें ही बहुत बड़ा अन्तर जो एवं जाणित्ता झादि परं अप्पयं विसुद्धप्पा । है-कुन्दकुन्दकी रचनामें जो प्रौढ़ता, गम्भीरता अणुवममपारदिसयं सोक्वं पावेदि सो जीवो ॥ और सूत्ररूपता आमतौरपर पाई जाती है वह यति -त्रिलोकप्रज्ञप्ति (-३६ वृषभकी रचनाओं में प्रायः देखनेको नहीं मिलती। . त्रिलोकप्रज्ञप्ति में तो दूसरे प्राचीन ग्रंथवाक्योंका अहमिको खलु सुद्धो दसणणाणमइओ सदारूवी कितना ही संग्रह जान पड़ता है। और इसलिये णवि अस्थि मज्झ किंचिवि अणंतपरमाणुमित्तंपि॥ त्रिलोकप्रज्ञप्ति के किसी वाक्यको कुन्दकुन्दके ग्रंथमें -समयसार, ४३ देखकर यह अनुमान लगाना ठीक नहीं है कि कह सकते हैं।
SR No.538002
Book TitleAnekant 1938 Book 02 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1938
Total Pages759
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size105 MB
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