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अनेकान्त
[कार्तिक, वीर-निर्वाण सं० २४६५ उनकी टीकाओंको स्वय देखकर लिखा गया मालूम जैसा कि इन्द्रनन्दीने “पार्वे तयोयोरप्यधीत्य नहीं होता और तो क्या, पिछली 'धवला' और सूत्राणि तानि यतिवृषभः” इस वाक्यके द्वारा 'जयधवला' नामकी टीकात्रों तकका इन्द्रनन्दी के सूचित किया है, तो यतिवृपभका समय पट्खण्डा
__गमकी रचनासे पूर्वका नहीं तो समकालीन ज़रूर सामने मौजूद होना नहीं पायाजाता। इसीसे उन्हों.
मानना पड़ेगा; क्योंकि पटखण्डागमके वेदनाखण्डने अपने 'श्रुतावतार' में 'धवला' का पखण्डा- में आर्यमंक्ष और नागहस्तीके मतभेदों तकका गम' के छहों खण्डों की टीका बतला दिया है *, उल्लेख है । चूंकि यतिवृषभका अस्तित्वकाल, जबकि वह प्रथम चार खण्डोंकी ही टीका है ! जैसाकि आगे स्पष्ट किया जायगा, शक संवत् ३८० दूसरे, आर्यमंक्षु और नागहस्तो नामके आचायों को (वि० सं०५१५) के बादका पाया जाता है और
कुन्दकुन्दका समय इससे बहुत पहलेका उपलब्ध गुणधराचार्यका सादात शिष्य घोषित कर दिया।
होता है। ऐसी हालतमें कुन्दकुन्दके द्वारा पटखण्डाऔर लिखदिया है कि गुणधराचार्यन 'कसाय- गमके किसीभी खण्डपर टीकाका लिखा जाना पाहुड, की सूत्रगाथाओंको रचकर उन्हें स्वयंही उनकी नहीं बनता। 'और जब टीका ही नहीं बनतो तो व्याख्या करके आर्यमक्ष और नागहस्ती को पढ़ाया उसके रचनाक्रमके आधार पर कुन्दकुन्दको यतिथा; जबकि जयधवला में स्पष्ट लिखा है कि वृपभस बादका विद्वान क़रार देना बिल्कुल ही
निरर्थक और निर्मूल है। 'गुणधराचार्यकी उक्त सूत्रगाथाएँ आचार्यपरम्परासे चली आती हुई आर्यमंद और नागहस्तीको (२) यतिवृषभकी त्रिलोकप्रज्ञप्ति के अनेक पद्यों
में लोकविभाग' नामके ग्रंथका स्पष्ट उल्लेख प्राप्त हुई थीं.-गुणधराचार्यसे उन्हें उनका सीधा
पाया जाता है । यथा:(direct) आदान-प्रदान नहीं हुआ था । यथा:
जलसिहरे विकावंभो जलणिहिणो "पुणो ताओ मुत्तगाहाम्रो आईरिय
जोयणा दससहस्सा। परंपराए आगच्छमाणाओ अज्जमखु- एवं संगाइणिए लोयविभाए विणिणागहत्थीणं पत्तायो"।
द्दिय़ । अ० ४ ___ --आराप्रति, पत्र नं. १०
लोयविणच्छयगंथे लोयविभागम्मि
सव्वसिद्धाणं । यदि आर्यमंच और नागहस्ती को गुणधराचार्य
ओगाहणपरिमाणं भाणिदं किंचण के साक्षात् शिष्य ही मान लिया जाय और साथ ही
चरिमदेहसमो ।। अ०६ यह भी स्वीकार कर लिया जाय कि यतिवृषभाचार्य- - ने उन दोनों के पाससे उक्त गाथासूत्रोंको पढ़ा था,
S “कम्म@िदिअणियोगद्दारेहि भएणमाणो वे उवदे
सा होंति जहएणुक्कस्सटिदीणं पमाणपरूवणा *इति षण्णां खण्डानां ग्रन्थसहस्त्रर्द्वि-सप्तत्या॥१८॥ कम्मलिदिपरूवणेत्ति णागहत्थिखमासमणा भणंति, प्राकृत-संस्कृतमिश्रां टीका विलिख्य धवला-ख्याम्॥१८२॥ अज्जमखुखमासमणा पुण कम्मट्ठिदिसंचिदसंतकम्म+ एवं गाथासूत्राणि पंचदशमहाधिकाराणि । परूवणा कमटिदिपरूवणेत्ति भणति ।" प्रविरच्य व्याचख्यौ स नागहस्त्यार्यमंक्षुभ्याम्॥ १५४ ।। -धवल सिद्धान्त, आरा-प्रति, पत्र नं० ११०९