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________________ 1 श्री कुन्दकुन्द और यतिवृषभमें पूर्ववर्ती कौन ? वर्ष २ किरण १] -उस यह 'लोकविभाग' ग्रंथ उस प्राकृत लोक विभाग ग्रंथ से भिन्न मालूम नहीं होता जिसे प्राचीन समय में सर्वनन्दी आचार्य ने लिखा था, जो कांची के राजा सिंहवर्मा के राज्यके २२ वे वर्ष - समय जबकि उत्तराषाढ़ नक्षत्र में शनिश्वर, वृषराशि में वृहस्पति, उत्तराफाल्गुनी नक्षत्र में चन्द्रमा था, शुल्कपक्ष था— शक संवत् ३८० में लिखकर पाणराष्ट्र के पाटलिक ग्राम में पूरा किया गया था और जिसका उल्लेख सिंहसूरि के उस संस्कृत 'लोकविभाग' के निम्न पद्यों में पाया जाता है, जो कि प्रायः सर्वनन्दी के लोकविभागको सामने रखकर ही भाषा के परिवर्तनादिद्वारा ( 'भाषायाः परिवर्तनेन' ) रचागया है: वैश्वे स्थिते रविसुते वृषभे च जीवे, राजोत्तरेषु सितपक्षमुपेत्य चन्द्रे | ग्रामे च पाटलिकनामनि पाणराष्ट्र, शास्त्रं पुरा लिखितवान्मुनि सर्वनन्दी || ३ || संवत्सरे तु द्वाविंशेकांचीश सिह वर्मणः । शीत्यग्रेशकाब्दानां सिद्धमेतच्छतत्रये ॥४॥ त्रिलोकप्रज्ञप्ति की उक्त दोनों गाथाओं में जिन विशेषवर्णनोंका उल्लेख ‘लोकविभाग' आदि ग्रंथोंके आधारपर किया गया है वे सब संस्कृत लोकविभाग में भी पाये जाते हैं, जोकि विक्रमकी ११वीं शताब्दी के बादका बना हुआ है; क्योंकि उसमें त्रिलोकसारसे भी कुछ गाथाएँ, त्रिलोकसारका नाम साथमें देते हुए भी, 'उक्तंच' रूपसे उद्धृत की गई *“दशैवैषसहस्त्राणि मूलेऽपि पृथुर्मतः " । प्रक० २ ह हैं । और इसलिये यह बात और भी स्पष्ट होजाती है. कि संस्कृतका उपलब्ध लोकविभाग उक्त प्राकृत लोकविभागको सामने रखकर ही लिखा गया है । इस सम्बन्धमें एक बात और भी प्रकट करदेनेकी है और वह यह कि संस्कृत लोकविभागमें उक्त दोनों पद्यों के बाद एक पद्य निम्न प्रकार दिया है- पंचादशशतान्याहुः षट्त्रिंशदधिकानि वै । शास्त्रस्य संग्रहरत्वेदं छंद सानुष्टभेन च ॥५॥ इसमें ग्रंथकी संख्या १५३६ श्लोक - परिमारण बतलाई है, जबकि उपलब्ध संस्कृत लोकविभाग में वह २०३० के करीब जान पड़ती है। मालूम होता है यह १५३६ की श्लोकसंख्या उसी पुराने प्राकृत लोकविभाग की है - यहाँ उसके संख्यासूचक पद्मका भी अनुवाद करके रख दिया है। इस संस्कृतग्रंथ में जो ५०० श्लोक जितना पाठ अधिक है वह प्रायः उन 'उक्तंच' पद्योंका परिमाण है जो इस प्रथमें दूसरे ग्रंथोंसे उद्धृत करके रक्खे गये हैं१०० से अधिक गाथाएँ तो त्रिलोकप्रज्ञप्तिकी ही हैं, २०० के करीब श्लोक आदिपुराणसे उठाकर रक्खे गये हैं और शेष ऊपरके पद्य त्रिलोकसार तथा जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति आदि ग्रंथोंसे लिये गये हैं । इस तरह इस ग्रंथ में भाषाके परिवर्तन और दूसरे ग्रंथों से कुछ पयोंके 'उक्तंच' रूपसे उद्धरणके सिवाय सिंहसूरिकी प्राय: और कुछ भी कृति मालूम नहीं होती । और इसलिये इस सारी परिस्थितिपर से यह कहने में कोई संकोच नहीं होता कि त्रिलोकप्रज्ञप्ति में जिसलोकविभागका उल्लेख है वह वही सर्वनन्दीका प्राकृत लोकविभाग है, जिसका उल्लेख ही नहीं किंतु “अत्यकायप्रमाणात्तुं किंचित्संकुचितात्मकाः " || प्रक० ११
SR No.538002
Book TitleAnekant 1938 Book 02 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1938
Total Pages759
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size105 MB
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