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वर्ष २, किरण ६]
भाग्य और पुरुषाय
होता है और वह क्या कार्य करते हैं, इसका सारांश दुक्ख सरूवमसादं तं वेदयदीदि वेदणियं ॥ म्प कथन इस प्रकार है, कि राग-द्वेष रूप भावोंसे अर्थ पं० टोडरमलजी कृत-इन्द्रियनके अपने अात्मामें एक प्रकारका संस्कार पड़ जाता है, विषयनका अनुभवन-जानना सो वेदनीय है, तहाँ जिससे फिर दोबारा राग-द्वेष पैदा होता है, उस मुखस्वरूप साता है, दुखस्वरूप असाता है, तिन गग द्वेषसे फिर संस्कार पड़ता है, इस प्रकार एक सुख दुखनको वेदयति कहिये अनुभव करावे मो वेदचक्करसा चलता रहता है, परन्तु किसी वस्तु में कोई नीय कर्म है। प्रकार का भी संस्कार वा बिगाड़ बिना किसी दूसरी परन्तु यह वेदनीय कर्म मोहनीय कर्मके उदयके वस्तु के मिले हो नहीं सकता है, इस कारण यहां भी यह बलमे ही अर्थात् राग देषके होनेपर ही मुख दुखका होता है कि रागद्वेष रूप भावोंके द्वारा जब आत्मामें अनुभव करा मकता है; जैसाकि गोमट्टमार कर्मकांड इलन चलन होती है तो श्रात्माके पासके मूक्ष्म पुद्गल गाथा १६ में लिखा है। परमाणुत्रोंमें भी हलन चलन पैदा होती है, जिसमे वे घादिव वेयणीयं मोहस्स बलेण घाददे जीयं । अात्माके साथ मिलकर उसमें संस्कार वा बिगाड़ इदि घादीणं मजे मोहस्सादिम्हि पटिदंतु ।। पैदा कर देते हैं। वे ही पुद्गल परमाणु कर्म कह अर्थ पं० टोडरमलजी कृत-वेदनीय नामाकर्म लाते हैं।
मी घातिया कर्मवत मोहनीय कर्मका भेद जो रति परति आत्माके माथ इन कर्मोका जो कर्तव्य होता है तिनके उदयकाल कर ही जीवको पाते हैं, सुख दुख उमके अनुसार इन कौके पाट भेद कहे स्वरूप माना श्रमाता को कारण इन्द्रियनका विषय गये हैं-जानावरणीय, दर्शनावरणीय. मोहनीय, तिनका अनुभव करवाय घात कर है। अन्तराय, वंदनीय, श्रायु, नाम, और गोत्र । ज्ञाना- कुछ ममय नक किमी एक शरीरमें जीवको वरगा और दर्शनावरगासे श्रात्माकी जाननकी शक्ति टहराये ग्ग्यना यह श्रायु कर्मका काम है, किसी प्रकारका . खराब होती है, मोहनीय कर्मसे पदार्थोंका मिथ्या श्रद्धान शरीर प्राम करना यह नाम कर्मका काम है। ऊँच-नीच होकर मचा श्रद्धान भ्रष्ट होता है और विषय कपाय भव वा गति प्राम कराना यह गोत्र कर्मका काम है। म्प तरंगें उठकर उसकी मुग्व शाँतिमें खगयी थाती इस प्रकार इन श्राट कमों के कार्यको जान लेने पर है। अन्तगय कमसे अान्मा के बलवीयं श्रादि शनियोंको यह बात साफ़ हो जाती है, कि कौका जो कुछ मी जोर अपना कार्य करनमें रोक पैदा होती है। श्राग्न नाक चलता है यह उम ही पर चलता है जिसके वे कर्म होते
आदि पांचो इन्द्रियाँ अपने अपने विषयका अनुभव है। कर्म करनेवाले जीवके मिवाय अन्य किसी भी जीव अर्थात् स्वाद वेदनीय कर्मके द्वारा प्राप्त करती हैं। पर वा उसके शरीर के निवाय अन्य किसी पुद्गल पदार्थ माता वेदनीयसे मुखका अनुभव होता है और श्रमातासे पर उनका कोई अधिकार नहीं होता है। दुखका । जैसा कि गोम्मटसार कर्मकांड गाथा १८ संसार में अनन्तानन्त जीव और हजारों लाखों ग्रह निग्या है
तारे नक्षत्र और श्राग पानी हवा मिट्टी श्रादिक अनन्त अक्खाणं अणुभवणं वेयपीयं सहसम्वयं साद पदगल पदार्थ सब अपना-अपना काम करते रहते हैं।