SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 400
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अनेकान्त [चैत्र, वीर-निर्वाण सं०२४६५ उसी संसारमें हम भी हैं, हमारा और इन सब जीव पड़ता है, गर्मी होती है, पानी बरसता है, बादल होता और अजीव पदार्थोंका संयोग इसी तरह हो जाता है है, धूप निकलती है, हवा कभी ठण्डी चलती है, कभी जिस तरह रातको बसेरेके लिये एक पेड़ पर आये हुए गर्म, नदियाँ बहती हैं, पानी का बहाव श्राता है, अन्य पक्षियोंका वा एक सरायमें इकडे हुए मुसाफिरोंका- भी अनेक प्रकारके अलटन-पलटन होते रहते है । संसार पक्षियों वा मुसाफिरोंका यह सब संयोग एक पेड़ का यह सारा चक्र हमारे कर्मोके आधार नहीं चल रहा पर आ बैठने वा एक सरायमें आकर ठहरनेके कारण है, किन्तु घड़ियालके घंटोंकी तरह सब कार्य संसारकी ही होता है, कोई किसी दूसरेके कर्मोंसे खिंचा हुआ अनन्तानन्त वस्तुओंके अपने अपने स्वभावके अनुआकर इकट्ठा नहीं होता है न कोई किसी दूसरेके कर्मों सार ही होरहा है । परन्तु हम अपनी इच्छाके अनुसार से खिंच ही सकता है। इस ही अचानक क्षणभरके कभी रात चाहते हैं कभी दिन, कभी जाड़ा चाहते हैं संयोगमें हम किसीसे राग कर लेते हैं और किसीसे देष कभी गर्मी, कभी बादल चाहते हैं, कभी धूप, कभी वर्षा फिर इसी रागद्वेषके कारण उनके अनेक प्रकारके चाहते हैं कभी सूखा । इसी प्रकार संसारके अन्य भी परिवर्तनों उनके सुख और दुःखोंको अपना सुख और सभी कामोंको अपनी इच्छाके अनुसार ही होते रहना दुःख मानकर सुखी और दुःखी होने लग जाते हैं। चाहते हैं, परन्तु यह सारा संसार हमारे श्राधीन न होनेसे इसी प्रकार जीवका अपने कुटम्बियो नगर-निवासियों जब यह कार्य हमारे अनुसार नहीं होते हैं तो, हम और देशवासियोंसे संयोग और वियोग होता रहता है, दुःखी होते हैं और अपने भाग्य व कर्मोको ही दोष देने ऐसा ही जीवोका संयोग संसारकी अनेकानेक निर्जीव लग जाते हैं । किन्तु इसमें हमारे कर्मोंका क्या दोष ! वस्तुओंसे भी होता रहता है। भूल तो हमारी है जो हम सारे संसारको, जो न हमारे ___एक कामी पुरुष बहुत दिन पीछे रातको अपनी आधीन है न हमारे कर्मोके ही श्राधीन,अपने ही अनुकूल बीसे मिलता है और चाहता है कि रात लम्बी होजाय चलाना चाहते हैं, नहींचलता है तो दुःखी होते हैं। इसी कारण नगरका घंटा बजने पर मुझलाता है कि रेलमें सफ़र करते समय इधर उधरसे श्रा-आकर क्यों ऐसी जल्दी २ घंटा बजाया जारहा है; फिर दिनमें अनेक मुसाफिर बैठते रहते हैं, कोई उतरता है कोई जब अपनी प्यारी स्त्रीसे विछोहा रहता है तो तड़पता है चढ़ता है, यों ही तांतासा लगा रहता है-तरह तरहके कि क्यों देर देरमें घंटा बज रहा है। इसीको किसी पुरुषोंसे संयोग होता रहता है, किसीसे दुख मिलता है, कविने इस प्रकार वर्णन किया है किसीसे सुख । कोई बीमार है, हरदम खांसता है, थकता कल शवेवस्ल में क्या जल्द बजें थी घडियाँ। है, छींकता है, जिससे हमको दुख होता है। किसीके भाज क्या मरगये घड़ियाल बजाने वाले ॥ शरीर और कपड़ोंमें य श्रारही है, जिससे हमारा नाक इसी प्रकार कभी रात होती है कभी दिन, कभी फटा जा रहा है। कोई सुगन्ध लगाये हुए है जिसकी महकसे जी खुश होता है कोई सुन्दर गाना गाता है, चाँदनी होती है कभी अँधेरी, मौसमें बदलती हैं, जाड़ा कोई दूसरे मुसाफिरोसे लड़ रहा है, इन सब ही के भले मिलापकी रात । बुरे कृत्योंसे कुछ न कुछ दुख सुख हमको भी भोगना
SR No.538002
Book TitleAnekant 1938 Book 02 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1938
Total Pages759
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size105 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy