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अनेकान्त
रकमको अधिक समय तक अपने पास नहीं रख सके और इसलिये उन्होंने उसे दूसरे धर्मकार्य मं दे डाला। बाद को यह स्थिर हुआ कि चूंकि 'जैन लक्षणावली' और 'धवलादिश्रुत- परिचय' जैसे ग्रन्थों के कार्यको हाथ में लिया जारहा है, इसलिये 'अनेकान्त' के प्रकाशनको कुछ समय के लिये और स्थगित रक्खा जाय । तदनुसार २८ जून सन १६३७ को प्रकट होनेवाली 'वीरसेवा मन्दिर - विज्ञप्ति में भी इस बात की सूचना निकाल दी गई थी ।
सालभर में जनलक्षणावली आदिके कामपर कुछ कावृ पानेके बाद मैं चाहता था कि गत वीरशासनजयन्ती' के अवसरपर 'अनेकान्त'को पुनः प्रकाशित कर दिया जावे और उसका पहला अंक 'वीरशामनाक' के नाममं विशेषाङ्क रहे, जिससे वीरसेवामंदिरमें होने वाले अनुसन्धान (रिसर्च) तथा साहित्यनिर्माण जैसे महत्वपूर्ण कार्योंका जनताको परिचय मिलता रहे परन्तु योग न भिड़ा ! इमतरह 'अनेकान्त' को फिरसे निकालनेका विचार मेरा उसी समय से चल रहा है- मैं उससे जगभी ग़ाफिल नहीं हुआ हैं ।
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हर्षका विषय है कि उक्त वीरशासनजयन्तीके शुभअवसरपर ही श्रीमान लाला तनमुखरायजी (मैनेजिंग डायरेक्टर तिलक बीमा कम्पनी) देहलीका, भाई अयोध्याप्रसादजी गोयलीय महित, उत्सवके प्रधानकी हैसियतसे वीरसेवामन्दिर में पधारना हुआ | आपने वीरसेवामन्दिरके कार्योंको देखकर 'अनेकान्तके' पुनः प्रकाशनकी आवश्यक्ताको महसूस किया, और गोयलीयजीको तो उसका बन्द रहना पहले से हो खटक रहा था वे उसके प्रकाशक थे और उनकी देशहितार्थ जेलयात्राके बाद ही वह बन्द हुआ था । अतः दोनोंका अनु रोध हुआ कि 'अनेकान्त' को अब शीघ्रही निकाना चाहिये । लालाजीने घांटेके भारको अपने ऊपर लेकर मुझे आर्थिक चिंतासे मुक्त रहनेका वचन दिया और भी कितना ही आश्वासन दिया
[ कार्तिक, वीरनिर्वाण सं० २४६५
साथ ही, उदारतापूर्वक यह भी कहा कि यदि पत्रको लाभ रहेगा तो उस सबका मालिक वीरसेवामन्दिर होगा । और गोयलीयजीने पूर्ववन प्रकाशक के भारको अपने ऊपर लेकर मेरी प्रकाशन तथा व्यवस्था संबन्धी चिन्ताओं का मार्ग साफ करदिया । ऐसी हालत में दीपमालिकासे - नये वीरनिर्वाण संवतके प्रारम्भ होते ही अनेकान्तको फिरसे निकालनेका विचार सुनिश्चित होगया । उसीके फलस्वरूप यह पहली किरण पाठकोंके सामने उपस्थित है और इस तरह मुझे अपने पाठकोंकी पुनः सेवाका अवसर प्राप्त हुआ है । प्रसन्नताकी बात है कि यह किरण आठ वर्ष पहलेकी सूचना अनुसार विशेषाङ्कके रूपमें हो निकाली जा रही है । इसका सारा श्रेय उक्त लालाजी तथा गायलीयजीको प्राप्त है - खासकर अनेकान्तके पुनः प्रकाशनका सहरा तो लालाजीके सरपर ही बँधना चाहिये, जिन्होंने उस अलाको हटाकर मुझे इस पत्रकी गति देनेके लिये प्रोत्साहित किया, जो अबतक इसके मार्ग में बाधक बनी हुई थी।
इसप्रकार जब अनेकान्तके पुनः प्रकाशनका सेहरा ला० तनसुखरायजीके सिरपर बँधन! था, तब इससे पहले उसका प्रकाशन कैसे हो सकता था ? ऐसा विचारकर हमें संतोष धारण करना चाहिये और वर्तमानके साथ वर्तते हुए rasi पाठकों तथा दूसरे सहयोगियों को पत्रके साथ सहयोग - विषयमें अपना अपना कर्तव्य समझ लेना चाहिये तथा उसके पालनमें दृढ़संकल्प होकर मेरा उत्साह बढ़ाना चाहिये ।
यह ठीक है कि आठ वर्षके भीतर मेरा अनुभव कुछ बढ़ा जरूर है और इससे मैं पाठकों को पहले से भी कहीं अधिक अच्छी २ बातें दे सकूंगा; परन्तु साथही यहभी सत्य है कि मेरी शारीरिक शक्ति पहलेसे अधिक जीर्ण होगई है, और इसलिये मुझे सहयोगकी अब अधिक श्रावश्यक्ता है। सुलेखकों और सच्चे सहायकोंका