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________________ वर्ष २ किरण १] सम्पादकीय १०३ यथेष्ट सहयोग मुझे मिलना चाहिये और उन्हें रूप देनेका विचार है उसके लिये अपरिमित शक्ति 'अनेकान्त'को एक आदर्श पत्र बनानेका ध्येय हो अधिक अपेक्षित है। अतः समाजको लालाअपने सामने रखना चाहिये । एक अच्छे योग्य जीके आर्थिक आश्वासनकं कारण अपने कर्तव्यक्लर्ककी भी मुझे कितनेही दिनसे ज़रूरत है, यदि से विमुख न होना चाहिये; प्रत्युत, अपने सहयोगउसको संप्राप्ति होजाय तो मेरी कितनी ही शक्तियों द्वारा लालाजी को उनके कर्तव्यपालनमें बराबर को संरक्षण मिले और फिर बहुतसा कार्य सहज प्रोत्साहित करते रहना चाहिये। ही में निकाला जा सकता है। मेरे सामने जैनलक्षरणावली, धवलादिश्रुतपरिचय और ऐतिहासिक अन्तमें मैं अपने पाठकोंसे इतना और भी जैनव्यक्तिकोप-जैसे महत्वपूर्ण ग्रंथोंके निर्माणका निवेदन करदेना चाहता हूँ कि इस पत्रकी नीति भी दरकाढर काम मामने पड़ा हुआ है, समाज बदस्तूर अपने नामानुकूल वही 'अनकान्त नीति' मग शक्तिको जितना ही सुरक्षित रग्वगा- है जिस 'जैनी नीति' भी कहते हैं, जिसका उल्लेख उमका अनावश्क व्यय नहीं होने देगा-उतना ही प्रथम वर्षकी पहली किरणके पृष्ट ५६, ५७ पर वह मुझसे अधिक संवाकार्य ले सकंगा। मेरा तो किया गया था और जो स्वरूपसे ही मौम्य, उदार, अत्र मर्वस्व ही समाजके लिये अर्पण है शान्तिप्रिय, विरोधका मथन करने वाली, लोक ___यहाँपर किमीको यह न मममलना चाहिये व्यवहारको सम्यक् वर्तावने वाली. वस्तुतत्वकी कि जब ला० तनमुखरायजी न साग आर्थिक प्रकाशक, लोकहिनकी माधक, एवं सिद्धिकी दाना भार अपने ऊपर ले लिया है तब चिन्ताकी कौन है: और इसलिये जिममें सर्वथा एकान्तता, निर बात है ! अर्थाधारपर तो अच्छे से अच्छे योग्य पक्ष-नय वादना, अमत्यता, अनुदारता अथवा क्लक की योजनाकी जासकती है और चाहे जैसे किसी सम्प्रदाय-विशप अनुचिन पक्षपातक लिये मुलग्यकोंस लग्य प्राप्त किये जासकते हैं। परन्तु कोई स्थान नहीं है । इस नीतिका अनुसरण करके एमा समझना ठीक नहीं है। ला० तनमुखगयजी लोकहितकी दापमं लिख गये प्रायः उन मभी की शक्ति परिभित है और वे श्रापनी उस शक्तिकं लग्बोंको इस पत्रमें स्थान दिया जामकेगा, जो अनुसार ही आर्थिक सहयोग प्रदान कर सकते हैं। यक्तिपरम्मर हो, शिप तथा मौम्य भापाम लिग्व परन्तु समाजकी शक्ति अपरिमित हैं और अने- गये हो. व्यक्तिगत आनेपाम दर हो और जिनका कान्त' को जिम रूपमें ऊंचा उठाने तथा व्यापक. लन्य किमी धर्म विशेषकी तौहीन करना न हो। २ लुप्तप्राय जैन-ग्रंथांकी खोज अनेकान्त' के प्रथम वर्षकी पहली किरणमें का कुछ विशेष परिचय भी दिया गया था। यपि लुप्रप्राय जैनग्रन्थोंकी खोजके लिये एक विज्ञप्ति समाजने उन ग्रन्थोंकी खाजक लिय काई विशेष (नं. ३) निकाली गई थी, जिसमें गस ग्रन्थों- ध्यान नहीं दिया, फिर भी यह स्वशांकी बात है कि के नामादि दिये गये थे और उनकी खोजकी उम आन्दोलनकं फलम्बम्प तीन ग्रन्थांका पता प्ररणा की गई थी। वादका उन ग्रन्थांका खाजक चलगया है, जिसमें एक ना न्यायविनश्चय मृल, लिये बृहत्पारितोषिककी योजना करक एक दृमरी दुमरा प्रमाणसंग्रह, बापज्ञ भाग्यमहित (ये दोनों विज्ञप्ति (नं०४) चोथी किग्गामं प्रकट की गई थी ग्रन्थ प्रककलंकदेयके हैं) और नीमग वगनग्नि । और उसमें उन ग्रन्धाक उल्लेखवाक्यादि-विषय- वगरग्निका पता प्रोफमर ० एन० उपाध्याय.
SR No.538002
Book TitleAnekant 1938 Book 02 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1938
Total Pages759
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size105 MB
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