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अनेकान्त
[कार्तिक, वीर-निर्वाण सं० २४६५
जीने कोल्हापुरके लक्ष्मीसेन-मठसे लगाया है, जहाँ और इसतरह अपने कर्तव्य पालनमें लापर्वाहीसे वह ताड़पत्रों पर लिखा हुआ है। साथ हो, यह काम लिया। इसके बाद मैंने उस त्रुटिसूचीको भी खोज की है कि वह वास्तव में रविषेणाचार्यका न्यायाचार्य पं० मणिचन्द्रजीको दिखलाया और बनाया हुश्रा नहीं है-जिनसेनकृत हरिवंश- कई बार सहारनपुर जाकर आराकी टीका-प्रतिपरसे पुराणके उल्लंख परसे विद्वानोंको उसे रविषेणा जाँच कराई । जाँचसे न्यायाचार्यजीने उस त्रुटिचार्यका समझनेमें भूल हुई है किन्तु जटाचार्य सूचीको ठीक पाया और उसपर यह नोट दिया:अथवा जटासिंहनन्दि आचार्यका बनाया हुआ है,
___ "श्रीपंडित जुगलकिशारजी साहिबने भारी जिन्हें धवलकविने अपने हरिवंशपुराणमें 'जटिल
परिश्रम करके इस 'न्यायविनिश्चय' के उद्धारका मुनि' लिखा है । यह ग्रन्थ प्रोफेसरसाहबके उद्योगसे-उन्हींके द्वारा सम्पादित होकर-माणिक
संशोधन किया है। यदि इतने परिश्रमके साथ यह
त्रुटि-सूची तय्यार न कीजाती तो उदधृत प्रति चन्द्र ग्रन्थमालामें छप भी गया है और अब
बहुत कुछ अशुद्ध और अधूरी ही नहीं किन्तु जल्दी ही प्रकाशित होने वाला है।
अतिरिक्त और असम्बद्ध भी रहती। टि-सूची स्वीप भाष्यसहित प्रमाणसंग्रह ग्रन्थ पाटन (गुजरात) के श्वेताम्बर भण्डारसं मिला है और
स्वबुद्धानुसार ठीक पाई गयी।" उसकी सम्प्राप्तिका मुख्यश्रेय मुनि पुण्यविजय तथा
(ता० १०-११-१६३१) पं० सुखलालजी को है। यह ग्रन्थ सिंधी जैन इसके बाद मैंने मूलग्रंथकी एक अच्छी साफ ग्रन्थमालामें छप गया है और जल्दी ही प्रकट कापी अपने हाथसे लिखी और विचार था कि उसे होने वाला है।
फुटनोटोंसे अलंकृत करके छपवाऊँगा । परन्तु न्यायविनिश्चय मुलकी टीकापरसे उदधत पं० सुखलालजीने उसे जल्दी ही प्रमाणसंग्रहके करनेका सबसे पहला प्रयत्न शोलापुरके पं० साथ निकालना चाहा और मेरी वह कापी मुझसे जिनदासपार्श्वनाथजी फडकुलेने किया । उन्होंने मंगाली । चुनाचे यह ग्रंथ भी अब प्रमाणसंग्रहके उसकी वह कापी मेरे पास भेजी। जाँचनेपर मुझे साथ सिंधीजैनग्रंथमालामें छप गया है और भूमिवह बहुतकुछ त्रुटिपूर्ण जान पड़ी। उसमें मूलके कादिसे सुसज्जित होकर प्रगट होने वाला है। कितने ही श्लोकों तथा श्लोकार्बोको छोड़ दिया था मेरे उठाए हुए इस आन्दोलनमें जिन सज्जनों
और कितने ही ऐसे श्लोकों तथा श्लोकार्बोको मूल ने भाग लिया है और इन तीन बहुमूल्य ग्रंथोंके में शामिल कर लिया था, जो मूलके न होकर उद्धारकार्य में परिश्रम किया है उन सबका मैं टीकासे सम्बन्ध रखते थे और भी कितनी ही हृदयसे आभारी हूँ। आशा है दूसरे ग्रंथोंकी खोजअशुद्धियाँ थीं। मैंने उन त्रुटियोंकी एक बृहत सूची का भी प्रयत्न किया जायगा। अभी तो और भी तय्यारकी और उसे पं० जिनदासजीके पास कितने ही ग्रंथ लुप्त, हैं कुछका परिचय इस किरण फिरसे जाँचने आदिके लिये भेजा; परन्तु उन्होंने में अन्यत्र दिया है और शेषका अगली किरणमें जाँचनेका वह परिश्रम करना स्वीकार नहीं किया दिया जायगा ।