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वर्ष २ किरण १]
सम्पादकीय शुरू शुरूमें खूब घाटे उठाएँ हैं, परन्तु उन्हें उन निकाला जाय। परन्तु दोनों में से एक भी बात घाटोंको पूरा करने वाले मिलते रहे हैं और इस- न हो सकी ! इस विषयमें लिखा पढ़ी आदिका लिये वे उत्साहके साथ बराबर आगे बढ़ते रहे हैं। जितना परिश्रम किया गया उसका तात्कालिक उदाहरणके लिये 'त्यागभूमि' को लीजिये, जिसे कोई विशेष फल न निकला । हाँ कलकत्तेके प्रसिद्ध शुरू-शुरूमें आठ-आठ नौ-नौ हजारके करीब तक व्यापारी, एवं प्रतिष्ठित सज्जन बाबू छोटेलालजी प्रतिवर्ष घाटा उठाना पड़ा है, परन्तु उसके सिर के हृदयमें उसने स्थान जाकर बनाया, उन्होंने कुछ पर बिड़लाजी तथा जमनालालजी बजाज जैसे महायता भी भेजी और वे अच्छी सहायताके ममयानुकूल उत्तम दानी महानुभावोंका हाथ है, लिये व्यापारादिकी अनुकूल परिस्थितिका अवसर जो उसके घाटोंको पूरा करते रहते हैं, इसलिये देखने लगे। वह बराबर उन्नति करती जाती है तथा अपने जनवरी मन १६३४ में 'जयधवलाका प्रका माहित्यक प्रचारद्वारा लोकचिको बदल कर नित्य शन' नामका मेरा एक लेख प्रकट हुआ, जिसे नये पाठक उत्पन्न करती रहती है और वह दिन पढ़कर उक्त बाबू साहब बहुत ही प्रभावित हुए, अब दूर नहीं है जब उसके घाटेका शब्द भी सुनाई उन्होंने 'अनेकान्त' को पुनः प्रकाशित कराकर मेरे नहीं पड़ेगा किन्तु लाभ ही लाभ रहेगा। 'अने- पासका सब धन ले लेनेकी इच्छा व्यक्त की और कान्त' को अभी तक ऐसे किसी सहायक महानु- पत्रद्वारा अपने हृद्गत भावकी सूचना देते हुए भावका सहयोग प्राप्त नहीं है। यदि किमी उदार लिखा कि, व्यापारकी अनुकूल परिस्थिति न होते महानुभावने इसकी उपयोगिता और महत्ताको हए भी मैं अनेकान्तके तीन सालके घाटेके लिये ममझकर किसी ममय इमको अपनाया और इस ममय ३६००) म० एक मुश्त श्रापको भेट इसके सिरपर अपना हाथ रक्ग्वा तो यह भी करनेके लिये प्रोत्साहित हैं, आप उसे अब शीघ्र व्यवस्थित रूपसे अपना प्रचारकार्य कर सकेगा ही निकालें । उत्तरमें मैंने लिख दिया कि मैं इस
और अपनेको अधिकाधिक लोकप्रिय बनाता हश्रा ममय वीरसंवामन्दिर निर्माण कार्य में लगा घाटेस सदाके लिय मुक्त होजायगा। जैनसमाज हा है-जग भी अवकाश नहीं है-बिल्डिंगकी का यदि अच्छा होना है तो जरूर किसी-न-किसी समाप्ति और उमका उद्घाटन मुहूर्त हो जानेके महानुभावक हृदयम इसकी ठास महायताका भाव बाद अनकान्त' को निकालने का यत्न बन सकेगा, उदित होगा, ऐसा मेरा अंतःकरण कहता है। आप अपना वचन धरोहर रकम् । चनाँच वीरदेवता हैं इस घाटको पूरा करनेक लिय कौन-कौन मंबामन्दिरके उदघाटनके बाद सितम्बर मन उदार महाशय अपना हाथ बढ़ाते है और मुझ १९३६ में, 'जैनलनगावली' के कार्यको हाथमें उत्साहित करते हैं। यदि ६ मजन सौ-सौ रुपये लेते हए जो सचना निकाली गई थी उममें यह भी भी देखें तो यह घाटा सहज ही में पूरा हो
मृचिन कर दिया गया था कि-"अनेकान्तको भी मकता है।"
निकालनका विचार चल रहा है । यदि वह मेरी इस अपील एवं सामयिक निवेदन पर धरोहर मुरक्षित हुई और वीरमवामन्दिरको प्रायः कोई ध्यान नहीं दिया गया सौ-मौ रुपये ममाजके कुछ विद्वानोंका यथेष्ट महयोग प्राप्त हो की सहायता देनेवाले सजन भी आगे नहीं मका ना, आश्चर्य नहीं कि 'अनेकान्न' के पुनः प्रका श्राए । मैं चाहता था कि या तो यह घाटा पूरा कर शनकी योजना शीघ्र ही प्रकट कर दी जाय ।" दिया जाय और या आग को कोई सजन घाटा परन्तु वह धरोहर सुक्षित नहीं रही। बाबू उठानक लिये तय्यार हो जायें तभी अनेकान्त' माहब धर्मकार्यक लिये मंकल्पकी हुई अपनी उम