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________________ ४१६. अनेकान्त [वैशाख, वीर-निर्वाण सं०२४६५ फंसकर पाप ही अपनी ऐसी दुर्गति बना लेता है,होलीका साथ थामकर उनको अपने अनुकूल ही चलाता रहे । यही भड़वा बनकर अपने ही हाथों ऐसा जलील और उसका सद्गृहस्थीपन है, नहीं तो वह नीचातिनीच मनुष्य स्वार होता है, ऐसे २ महान् दुख भोगकर मरता है कि ही नहीं, किन्तु भयंकर राक्षस तथा हिंसक पशु बनकर जिनका वर्णन नहीं किया जासकता है और मरकर भी अथवा विष्टाके कीड़े के समान गन्दगीमें ही पड़ा रहकर सीधा नर्कमें ही जाकर दम लेता है। इसी कारण इस अपना जन्म पूरा करेगा और मरकर नरक ही जायेगा। लेखमें पुरुषार्थ पर इतना जोर दिया गया है कि जिसके कर्मोको बलवान मानकर उनके आधीन होजानेका यही भरोसे गृहस्थी लोग कर्मोको निर्बल मानकर उनके उदय- तो एकमात्र कुफल है। से पैदा हुई विषय कषायोंकी मड़कको काब कर अपने वस्तुतः पुरुषार्थसे ही मनुष्यका जीवन है और अनुकूल चलानेका साहस कर सकें, गृहस्थ-जीवन इसीसे उसका मनुष्यत्व है । गृहस्थीका मुख्यकार्य कर्मोसे उत्तमतासे चलाकर भागेको भी शुभगति पावें-कर्मोंके उत्पन हुए महा उद्धत विषय-कषायोको पुरुषार्थ के बलउदयसे डरकर, हाथ पैर फुलाकर अपने हिम्मत, साहस से अपने रूप चलानेका ही तो है, इस कार्यके लिये और पुरुषार्थको न छोड़ बैठे, डरे सो मरे यही बात उसमें सामर्थ्य भी है । वह तो अपनी सामर्थ्य के बल पर हरवक्त ध्यानमें रक्खें। इससे भी अधिक ऐसा-ऐसा अद्भुत और चमत्कारी पुरुअगर किसी मुसाफ़िरको किसी बहुत ही दंगई घोड़े पार्थ कर दिखा रहा है कि स्वर्गाके देवोंकी बुद्धी भी पर सवार होकर सफर करना पड़जाय और उसके मनमें जिसको देखकर अचम्भा करने लग जाती है । देखो यह या बैठ जाय किसी ाय कि इस घोड़े पर मेरा कोई वश नहीं चल पाँच हाथका छोटा-सा मनुष्य ही तो श्राग, पानी, हवा, सकता है, ऐसा विचारकर वह घोड़ेकी बाग ढीली छोड़दे, बिजली आदि सृष्टि के भयंकर पदार्थोंको वश करके तो पाप ही समझ सकते हैं कि फिर उस मुसाफिरकी उनसे अपनी इच्छानुसार सर्व प्रकारकी सेवाएँ लेने खैर कहाँ ? वह बे लगाम घोड़ा तो उल्टा सीधा भागकर लग गया है, प्राग, पानीसे भाप बनाकर उससे आटा मुसाफिर की हड्डी-पसली तोड़कर ही दम लेगा। यही हाल पिसवाता है, लकड़ी चिरवाता है, पत्थर फुड़वाता है, गृहस्थीका है, जिसको महा उद्धत विषय-कषायोंको हजारों मनुष्य और लाखों मन बोझ लादकर रेलगाड़ी भोगते हुए ही अपना गृहस्थ-जीवन व्यतीत करना होत खिचवाता है-खिचवाता ही नहीं, हवाके सामने तेज़ीहै। यह भी अगर यह मानले कि जो कुछ होगा वह से भगाता है। क्या कोई भयंकरसे-भयंकर राक्षस ऐसा मेरे कर्मोंका ही किया होगा, मेरे किये कुछ न होसकेगा बलवान् हो सकता है जैसे ये मापसे बनाये ऐखिन होते और ऐसा विचारकर वह अपने विषय-कषायोकी बागडोर- जिनकों यह साधारणसा मनुष्य अपने अनुकूल को बिल्कुल ही ढीली छोड़कर उनको उनके अनुसार होकता है । यह सब उसके पुरुषार्यकी ही तो महिमा ही चलने दे तो उसके तबाह होनेमें क्या किसी प्रकारका है। मनुष्यको अपने पुरुषार्थसे किधित मात्र भी असावशक या शुबाह हो सकता है ! गृहस्थी तो कुशलसे धान तथा विचलित होते देख यही मनुष्यका बनाया तब ही प सकता है जब अपने पुरुषार्थ पर पूरा-पूरा ऐजिन ऐसा भयंकर होजाता है कि पलकी पलमें हजारों भरोसा करके विषयकषायोंकी बागडोरको सावधानीके मनुष्योंको यमद्वार पहुँचा देता है।
SR No.538002
Book TitleAnekant 1938 Book 02 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1938
Total Pages759
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size105 MB
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