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________________ ६०२ अनेकान्त [ भाद्रपद, वीर-निर्वाण सं०२४६५ कि निगोदराशिमें भी पहुंच सकता है । शास्त्रोंमें वहाँ उच्च गोत्रका व्यवहार होना चाहिये और जो ऐसी मनुष्यपर्यायकी प्रशंसा नहीं की गई है कि गति अशुभ हो वहाँ नीच गोत्रका व्यवहार होना जिसको पाकर जीव दुर्गतिक कारणोंका संचय करे, चाहिये । चूंकि नरक गति और तिर्यग्गति अशुभ या ऐसी मनुष्यपर्यायको पानेके लिये देव लाला- हैं इसलिये इनमें नीच गोत्रका और देव गति शुभ यित नहीं रहते होंगे कि जिसको पाकर वे अनन्त है इसलिये इसमें उच्च गोत्रका व्यवहार जिस संसारके कारणोंका संचय करें । मनु यगतिके प्रकार शास्त्रसम्मत है उसी प्रकार मनुष्यगतिमें साथ सत्समागम, शारीरिक स्वास्थ्य, श्रात्म- भी शुभ होनेके कारण उच्च गोत्रका व्यवहार कल्याण-भावना और धार्मिक प्रेम व उसका ज्ञान मानना ही ठीक है।" । अवश्य होना चाहिये, तभी मनुष्यपर्यायकी प्रशंसा कर्मकांडकी गाथा नं० १८ का कथन सामान्य व शोभा हो सकती है। इसलिये सभी मनुष्योंको कथन है तथा इस कथनसे ग्रंथकारका क्या आशय उच्चगोत्री सिद्ध करनेके लिये मनुष्यगतिको है ? यह बात “शामपुष्वं तु" पाठसे स्पष्ट जानी ये वकील सा० द्वारा दिखलाई गयी विशेषतायें जा सकती है। यदि इस गाथाका जो आशय असमर्थ हैं। आगे सभी मनुष्योंको उच्च गोत्री वकील साने लिया है वही ग्रंथकारका होता तो सिद्ध करने में जो कर्मकांड, जयधवला और वे ही ग्रन्थकार स्वयं आगे चलकर गाथा नं. लब्धिसारके प्रमाण दिये हैं वे कितने सबल हैं इस २९८ में मनुष्यगतिमें उदययोग्य १८२ प्रकृतियोंमें पर भी विचार कर लेना आवश्यक है- नीच गोत्रको शामिल नहीं करते। थोड़ी देरके सबसे पहिले उन्होंने कर्म कांडकी गाथा नं० लिये वकील सा० की रायके मुताबिक मनुष्यगतिमें १८ का प्रमाण उपस्थित किया है, वह इस प्रकार उदययोग्य १०२ प्रकृतियोंमें नीचगोत्रका समावेश है-"भवमस्सिय णीचुवं इदि गोदं" (णामपुग्वं तु) सम्मूर्छन और अन्तर्वीपज मनुष्योंकी अपेक्षा मान वकील सा० ने उद्धृत किये हुए अंशका यह लिया जाय, फिर भी इससे इतना तो निश्चित अर्थ किया है कि उच्च-नीच गोत्रका व्यवहार भव है कि ग्रन्थकार वकील सा. की रायके अनुसार अर्थात् नरकादि पर्यायोंके आश्रित है। इससे वे सम्मूर्छन और अन्तर्वीपज मनुष्योंको मनुष्य यह तात्पर्य निकालते हैं कि “जो गति शुभ हो कोटिसे बाहिर फेंकनेको तैयार नहीं हैं, और ऐसी कोष्टक वाला भाग इसी गाथाके भागेका भाग है हालतमें गाथा नं० १८ में ग्रंथकारकी रायको वकील जिसको वकील सा० ने अपने उद्धरणमें घोर दिया है। सा० अपनी रायके मुताबिक़ नहीं बना सकते हैं। और इसको मिला देने पर पूरा भर्थ इस प्रकार हो ग्रंथकारने गाथा नं० १८ में जो भव' शब्दका जाता है--नीच और उप व्यवहार भव अर्थात् नरकादि प्रयोग किया है वह नीचगोत्र और उच्चगोत्रके क्षेत्र. गतियोंके भाभित है तथा गतियां नाम कर्मके भेदों में विभाग व क्षेत्रके निर्णयके लिये नहीं किया है शामिल हैं इसलिये नामकर्मके बाद गोत्रकर्मक पाठ बल्कि कर्मों के पाठक्रममें गोत्रकर्मका पाठ नामकर्मके बतलाया गया है। बाद क्यों किया है ? इस शंकाका समाधान करनेके
SR No.538002
Book TitleAnekant 1938 Book 02 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1938
Total Pages759
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size105 MB
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