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________________ वर्ष २, किरण ११] मनुष्योंमें उच्चता-नीचता स्यों! ६०३ लिये किया है। इसलिये ग्रंथकारका गाथा नं०१८के प्योंके साथ भार्यखएडमें बसनेवाले पर्याप्तक मनुउस अंशसे इतना ही तात्पर्य है कि "नामकर्मकी प्योंके भी नीचगोत्रकर्मका उदय मानते हैं, इसलिये प्रकृति (?) चारों गतियोंके उदयमें ही उप-नीच कर्मकांडकी गाथा नं०२९८ का पाशय वकील सा० गोत्रका व्यवहार होता है इसलिये गोत्रकर्मका पाठ के आशयको पुष्ट करनेमें असमर्थ हो जाता है। नामकर्म के बादमें किया गया है ।" इसके द्वारा दूसरा कोई प्रमाण सामने है नहीं, इसलिये वकील नीचगोत्र व उच्चगोत्रके क्षेत्र-विभाग व स्थानका सा० की यह मान्यत । कि-"मनुष्यगतिमें नीचनिर्णय किसी भी हालतमें नहीं हो सकता है। गोत्रकर्मका उदय सम्मूर्छन और अन्तर्वीपज ___ अब वकील सा० की यह बात और रह जाती मनुष्यों ( जिनको कि उन्होंने अपना मत पुष्ट करने है कि-"मनष्यगतिमें नीचगोत्र कर्मका उदय के लिये मनुष्यकोटिसे बाहिर फेंक दिया है ) की सम्मूर्छन और अन्तर्वीपज मनुष्योंकी अपेक्षासे अपेक्षासे है" खटाईमें पड़ जाती है और इसके बतलाया है।" सो यह बात भी प्रमाणित नहीं हो साथ माथ यह सिद्धान्त भी गायब हो जाता है कि सकती है। क्योंकि फर्मकांडकी गाथा नं.२९८ में सभी मनुष्य उचगोत्री हैं। मनुष्यको उदययोग्य १०२ प्रकृतियोंमें नीच गोत्र- श्रीयुत मुख्तार मा० शीतलप्रमादजीके लेग्य कर्मका समावेश ग्रन्थकारने सम्मुर्छन और अन्त- पर टिप्पणी करते हुए अनेकान्तकी गत चौथी पज मनुष्यकी अपेक्षासे नहीं किया है। यदि ऐसा किरणमें लिग्खते हैं-"मनुष्यों में पांचवें गुणस्थान मान लिया जायगा तो कर्मकांड गाथा नं. ३०० से तक नीचगोत्रका उदय हो सकता है. यह ( कर्म: इसका विरोध होगा । गाथा नं. ३०० में जो भूमिमें बसने वाले मनुष्योंको नीचगोत्री मिड मनुष्यगतिके पञ्चमगुणस्थानकी उदयव्यच्छिन्न करने के लिये) एक अच्छा प्रमाण जरूर है; परन्तु प्रकृतियों को गिनाया है उसमें नीचगोत्रकम भी उसका कुछ महत्व तबही स्थापित होमकना है जब शामिल है, जिससे यह तात्पर्य निकलता है कि पहिले यह सिद्ध कर दिया जावे कि 'कर्मभमिज ग्रंथकारके मतसे मनप्यगतिमें नीचगोत्रकर्मका मनुष्योंको छोड़कर शेप मब मनप्यों मे किसी भी उदय पञ्चमगुणस्थान तक रहता है। पञ्चमगण- मनुष्यमें किसी समय पाँचवाँ गुणस्थान नहीं बन स्थान कर्मभमिके आर्यखंडमें विद्यमान पर्याप्रक सकता है।" मनुष्यके आठ वर्षको अवस्थाके बाद ही हो सकता यह तो निश्चित ही है कि भोगभूमिकं मनप्योहै *। इससे यह बात बिल्कुल स्पष्ट हो जाती है के पञ्चम गुणस्थान नहीं होना । माथ ही, भोगकि कर्मकांडकार सम्मूर्छन और अन्तर्दीपज मन- भूमिया मनुष्य उपगोत्री ही होते हैं इसलिये वह ___ यहां उपयोगी भी नहीं । पाँच म्लेच्छ खंडोंमें भी * इस बातका स्पष्ट विधान करनेवाला कोई जयधवलाके आधार पर यह सिद्ध होता है कि भागम-वाक्य भी यदि यहाँ प्रमाण रूपमें देदिया जाता उनमें धर्म-कर्मकी प्रवृत्तिका प्रभाव है इसलिये वहाँ तो अच्छा होता। -सम्पादक पर भी पंचमगुरणस्थान किसी भी मनुष्यके नहीं
SR No.538002
Book TitleAnekant 1938 Book 02 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1938
Total Pages759
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size105 MB
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