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________________ ६०४ अनेकान्त [ भाद्रपद, वीर-निर्वाण सं०२४६५ हो सकता है। लेकिन थोड़ी देरके लिये यदि उनके और ३२९t के अर्थ पर ध्यान देने की जरूरत है। भी पाँचवाँ गुणस्थान मान लिया जाय तो भी इन दो गाथाओंमें सम्यक्त्वमार्गणाकी अपेक्षासे वकील सा० के मतानुसार तो वे उच्चगोत्री ही हैं कर्मप्रकृतियोंके उदयका निरूपण किया गया है, इसलिये उनके भी पांचवां गुणस्थान मान लेनेपर उसमें क्षायिक सम्यग्दृष्टिके पञ्चमगुणस्थानकी कर्मउनका प्रयोजन सिद्ध नहीं हो सकता है। सम्मू- प्रकृतियोंकी उदयव्यच्छित्तिका निर्णय करते हुए र्छन मनुष्योंके तो शायद वकील सा० भी पञ्च- लिखा है कि क्षायिक सम्यग्दृष्टि देशसंयत मनुष्य गुणस्थान स्वीकार नहीं करेंगे, इसलिये केवल ही हो सकता है तिर्यश्च नहीं, इसलिये पश्चमगुणअन्तर्वीपज मनुष्य ही ऐसे रह जाते हैं जिनके वि- स्थानमें व्युच्छिन्न होनेवाली प्रकृतियोंमेंसे तिर्यगाय, पछमें नीचगोत्री होनेके कारण वकील सा० की उद्योत और तिर्यगति की उदयव्युच्छित्ति क्षायिकपक्रमगुणस्थानकी संभावना सार्थक हो सकती है, सम्यग्दर्शनकी अपेक्षा चौथे गुणस्थानमें ही होजाती । और मेरा जहाँ तक स्नयाल है इन्हीं अन्तीपजों- है, बाकी पञ्चमगुणस्थानमें व्युच्छिन्न होनेवाली की अपेक्षासे ही मुख्तार सा० पञ्चमगुणस्थानमें सभी प्रकृतियोंकी उदय व्युच्छित्ति क्षायिक सम्यनीचगोत्रके उदयकी सार्थकता सिद्ध करना चाहते म्हष्टि मनुष्यके भी पांचवें गुणस्थानमेंही बतलायी है हैं; परन्तु उनको मालूम होना चाहिये कि म्लेछ- उन प्रकृतियोंमें नीच गोत्र भी शामिल है,इससे यह की तरह उन अन्तर्वीपजोंमें भी धर्म-कर्म की निष्कर्ष निकलता है कि क्षायिक सम्यग्दृष्टि पश्चमत्ति का अभाव है । । इसलिये यह बात निश्चित गुणस्थानवी मनुष्य भी नीचगोत्रवाला हो कि पञ्चमगुणस्थानवर्ती नीच गोत्रवाले जो सकता है । क्षायिक सम्यग्दृष्टि नीचगोत्रवाला मनुष्य कर्मकाण्डमें बतलाये गये हैं वे आर्यखंडमें मनुष्य आर्यखंडमें रहनेवाला ही हो सकता है। बसनेवाले मनुष्य ही हो सकते हैं, दूसरे नहीं। दूसरा नहीं है। इसका कारण यह है कि दर्शनइसके विषयमें दूसरा प्रबल प्रमाण इस प्रकार . कर्मकांड की वे दोनों गाथायें इस प्रकार हैंभम्बिदरुवसमवेदगखाइये सगुणोषमुवसमे खयिये । यह सम्ममुवसमे पुण शादिनियाण य हारदुगं ॥३२८ कर्मकांडमें क्षायिक सम्यग्दृष्टि पञ्चमगुण खाइयसम्मो देसो गर एव जदो तर्हि ण तिरियाऊ ॥ उजोवं तिरियगदी नेसि प्रयदहिवोच्छेदो ॥३२॥ स्थानवी मनुष्यके भी नीचगोत्र कर्मका उदय जब दर्शनमोहनीयकर्मकी चपणाका निष्ठापक बतलाया है, इसके लिये कर्मकाण्ड गाथा नं०३२८ "निढवगो होदि सम्वत्व" इस वाक्यके अनुसार सर्वत्र हो सकता है तब मन्तद्वीपज मनुष्योंमें भी उसका निजो मन्तीपज कर्मभूमिसमप्रणिधि-कर्मभूमि- पंध नहीं किया जा सकता, और इसलिये "सायिकगोंके समान, मायु, उत्सेध तथा वृत्तिको लिये हुए हैं- सम्पष्टि नीचगोत्रवाला मनुष्य भार्यखण्डमें रहनेवाला उनमें भी च्या धर्मकर्मकी प्रवृत्तिका सर्वथा अभाव है? ही हो सकता है दूसरा नहीं," इस नियमके समर्थनमें यदि ऐसा है तो उसका कोई स्पष्ट भागम-प्रमाण यहाँ कोई भागम-वाक्य यहाँ उद्धृत किया जाता तो अच्छा दिया जाना चाहिये था। -सम्पादक रहता। --सम्पादक
SR No.538002
Book TitleAnekant 1938 Book 02 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1938
Total Pages759
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size105 MB
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