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________________ वर्ष २, किरण ११] मनुष्योंमें उन्चता नीचता क्यों ? -- - मोहनीयके क्षपणका प्रारम्भ कर्मभूमिजो मनुष्य रंगा तो देवायुका ही करेगा दूसरी का नहीं, इससे ही करता है वह भी तीर्थकर व केवली श्रुतकेवली स्पष्ट है कि नीचगोत्र वाला देशसंयत जो मनुष्य के पादमूलमें ही। नीचगोत्रवाले मनुष्यके लिये जिस भवमें दर्शनमोहनीयका रुपण करके क्षायिक प्रतिबन्ध न होनेके कारण नीचगोत्रवाला कर्म- सम्यग्दृष्टि बनता है उस भवमें तो वह कर्मभूमिज भूमिज मनुष्य भी तीर्थकर आदिके पादमूलमें ही होगा, अब यदि वह मरण करेगा तो उपगोत्र जाकर दर्शनमोहनीयका क्षपण कर सकता है। वाले वैमानिक देवोंमें ही पैदा होगा, वहाँसे पथ क्षपण करने पर जब वह क्षायिक सम्यग्दृष्टि बन करनेपर वह नीचगोत्री मनुष्योंमें पैदा न होकर जाता है तब यदि वह नारकायु, तियेगाथु या मनुः -सम्यग्दर्शनगुदा नारकतिपनपुसंकत्रीत्वानि । प्यायुका बन्ध पहिले कर चुका हो तो वह देश दुकुलविकृताल्पाघुरिदता र प्रति नाय संयम या सकलसंयम नहीं ग्रहण कर सकता है। प्रतिकाः ॥३॥ इसलिए उसकी तो यहाँ चर्चा ही नहीं, एक देवा- इसमें दुल शब्द ज्यान देने योग्य है। दुष्कुलका यका बन्ध करनेवाला ही देशसंयम या सकल- अर्थ नीचगोत्र-विशि कुन ही हो सकता है। पर क्यान संयम धारण कर सकता है। जिसने भायुबन्ध भायुका बन्ध नहीं करनेवाले सम्पतिको समय के नहीं किया है वह भी यद्यपि देशसंयम धारण कर किया गया है। सकता है परन्तु वह बादमें देवायुका ही बन्ध करता ख-दंसबमोहे खबिदे सिग्मदि ऐक्लेव तादिवतुस्विभवे । है अन्यका नहीं अथवा नीचगोत्री देशसंयत मनु- यादिकवि हरियमवं पविणस्सदि सेससम्मं ॥ प्य भी दर्शनमोहका क्षपण करके क्षायिक सम्यग्दृष्टि -पक गाथा, जीवकांर १.२३॥ बन सकता है, लेकिन वह भी यदि आयुर्बन्ध क- अर्थ-चायिक सम्पग्दर्शनको धारण करनेवासा कोई कि-मनुष्यःकर्मभूमिज एवं दर्शनमोहलपणप्रारम्भकोभवति जीव तो उसी भवमें मुक्त हो जाता है कोई तीसरे भवन और कोई चौथे भवमें निषमसे मुक्त हो जाता है। --सर्वार्थसिदि, पृ०१०। इसका पाश्य यह है कि तभवमोचगामी वो बसी ख-दसणमोहरक्खवणापहवगो कम्मभूमिजो मोसो। भवमें मुक्त हो जाता है, यदि सम्यक्त्व-प्राप्तिके पहिये तित्थयरपादमूले केवलिसुदकेवलीमूले ॥ नरका या देवायुका बन्ध किया हो तो अथवा मन्य -सर्वार्थसिद्धिटिप्पणी पृ. २६ पत्व प्राप्त करने के बाद देवायुका बन्ध करने पर तीसरे ग-दसणमोहक्खवणापहवगो कम्मभूमिजादो हु। भवमें मुक्त हो जाता है और सम्यक्त्व प्रासिके पहिले मणुसो केवखिमूले णिहवगो होदि सम्वत्थ ॥ यदि मनुष्य या तिरंगायुका पन्ध किया हो तो मोगभूमि -गो जीवकांड ६४. में जाकर वहाँसे उपकुली देव होकर फिर चयन रबचित्तारि विखेसाइंभाउगबंधेशोह सम्मत्तं । कुखी मनुष्य होकर मोर चला जाता है,देशसंपत राषिक अणुवदमहत्वदाई व बहा देवाडगं मोतु ॥ सम्पटि तो उसी भवमें पा नियमसे देव होकर नहाँसे -गो० कर्मकांड, ३१४ उबकुखी मनुष्य होकर मुक्त हो जाता है।
SR No.538002
Book TitleAnekant 1938 Book 02 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1938
Total Pages759
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size105 MB
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