________________
६०६
अनेकान्त
[भाद्रपद, वीर-निर्वाण सं०२४६५
उचगोत्री कर्मभूमिज मनुष्योंमें ही पैदा होगा; इस पर उद्धृत किया जाता हैप्रकार यह निश्चित हो जाता है कि पंचमगुणस्थान- “कम्मभूमियस्स पडिवजमाणस्स जहएणयं संजम में जो मनुष्योंके नीचगोत्रकर्मका उदय बतलाया हाणमणंतगुणं । (चू० सू० ) पुग्विल्लादो असंखे. है वह कर्मभूमिज मनुष्योंकी अपेक्षासे ही बत- (य) लोग मेत्तघटाणाणि उवरि गंतूणेदस्स समुलाया है *, जिससे वकील सा० का मनुष्यगतिमें पत्तीए। को अकम्मूभूमिमीणाम ? भरहैरावयविदेहेसु नीचगोत्र कर्मका उदय सम्मूर्छन और अन्तर्वीपज विणीतसरिणवमम्झिमखंड मोतूण सेसपंचखंडविणि. मनुष्योंमें मानकर सभी मनुष्योंको उच्चगोत्री सिद्ध वासी मणुभो एत्थ "अकम्मभूतिओ" ति विवक्खियो । करनेका प्रयास बिल्कुल व्यर्थ हो जाता है। तेसु धम्मकम्मपवुत्तीए असंभवेण तन्मावोवखेवत्तीदो ।
आगे वकील सा० ने जयधवला और लब्धि- जइ एवं कुदो तस्थ संजमगहणसंभवो सि णासंकिणिज । सारके आधार पर यह सिद्ध करनेकी कोशिश की दिसाविजयदृचक्कवट्टिखंधावारेण सह मज्झिमखंडहै कि सभी मनुष्य उचगोत्री हैं। वकील सा० ने मागयाणं मिलेच्छरायाणं तत्य चावहिमादिहिं सह जादजयधवलाका उद्धरण दिया है उसके पहिलेका कुछ वेवाहियसंवन्धाणं संजमपरिवत्तीए विरोहाभावादो ।
आवश्यक भाग मुख्तार सा० ने अनेकान्तकी गत महवा तत्तत्कन्यकानां चक्रवादिपरिणीतानां गर्भेषत्पना तीसरी किरणमें श्री पं० कैलाशचन्दजी शास्त्रीके मातृपक्षापेक्षया स्वयमकर्मभूमिजा इतीह विवक्षिताः। तत लेख पर टिप्पणी करते हुए दिया है, वह सब यहाँ न किचद्विप्रतिषिदम् । तथाजातीयकानां वीलाहवे ____* दर्शनमोहकी पपणाका प्रारम्भ करनेवाला मनु- प्रतिषेधाभावाविति ।" प्य मरकर जब 'निढवगो होदि सम्वत्थ' के सिद्धान्ता- इस प्रकरणमें अकमभूमिज मनुष्यके भी नुसार सर्वत्र उत्पन होकर मिष्ठापक हो सकता है, तब संयमस्थान बतलाये हैं इससे यहाँ पर शंका उठाई वह कर्मभूमिसमप्रणिधि नामके अन्तदीपजों में भी है कि अकर्मभूमिज मनुष्य कौन है ? इसका उत्तर उत्पन हो सकता है और वहाँ उस सपणाका निष्ठापक देते हुए आगे जो लिखा गया है उसका अर्थ इम होकर सायिक सम्यनष्टि बन सकता है तब उसके पंच- प्रकार है-“भरत, ऐरावत और विदेह क्षेत्रों में मगुणस्थानवी हो सकनेमें कौन बाधक है, उसे मी विनीत नामक मध्यम (आर्य) खंडको छोड़कर शेष यहाँ स्पष्ट करदिया जाता तो अच्छा होता; तभी इस पांचमें रहने वाला मनुष्य यहाँ पर अकर्मभूमिज निष्कर्षका कि "पंचमगुणस्थानमें जो मनुष्यों के नीचगोत्र इष्ट है अर्थात् यहाँपर उल्लिखित पाँच खंडों में रहने कर्मका उदय बतलाया है वह कर्मभूमिज मनण्योंकी वाले मनुष्य ही अकर्म भूमिज माने गये हैं, कारण प्रपेशासे ही बतलाया है" ठीक मूल्य भांका जासकता
कि इन पांच खंडोंमें धर्मकर्मकी प्रवृति न हो था; क्योंकि गोम्मटसारकी उस गाथा नं. १०. में सकनेसे अकर्मभूमिपना संभव है। 'मणुससामरणे' पद पड़ा हुभा है, जो मनुष्यसामान्य- ___ यदि ऐसा है अर्थात् इन पाँच खंडोंमें धर्मका वाचक है--किसी वर्गविशेषके मनुष्योंका नहीं। कर्मकी प्रकृति नहीं बन सकती है तो फिर इनमें
संयममहणकी संभावना ही कैसे हो सकती है?