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वर्ष २, किरण ११]
मनुष्यों में उच्चता-नीचता क्यो !
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यह शंका ठीक नहीं है, कारण कि दिशाओंको यक्ति संगत है।" जीतने वाले चक्रवर्तीकी सेनाके साथ मध्यम (प्राय) - अब हमें विचारना यह है कि वकील सा० ने खंड में आये हुए और जिनका चक्रवर्ती श्रादिके
जयधवला और लब्धिसार के आधार पर जो तात्पर्य
निकाला है वह कहाँ तक ठीक है?साथ विवाहादि संबन्ध स्थापित हो चुका है ऐसे ।
इम शंका-समाधानसे इतना तो निश्चित है कि म्लेच्छ गजाओं के संयम ग्रहण करनेमें (भागमसे) जयधवलाके रचनाकालमें लोगोंकी यह धारणा विरोध नहीं है।
अवश्य थी कि मलेच्छखंडके अधिवासियों में मंयमअथवा उन म्लेच्छ राजाांकी जिन कन्याओं धारण करनेकी पात्रता नहीं है। यही कारण है कि
ग्रन्थकारने स्वयं शंका उठाकर उमके समाधान का विवाह चक्रवर्ती श्रादिसे हो चुका है उनके गर्भ
करनेका प्रयत्न किया है। और जब पहिला समाधान में उत्पन्न हुए ( व्यक्ति ) स्वयं ( कर्मभूमिज होते हुए उनको मंतीपकारक नहीं हुआ सब उन्होंने निःशंक भी ) मातृपक्ष की अपेक्षा इस प्रकरणमें अकर्म- शब्दों में मरा समाधान उपस्थित किया है ।"तथाभमिज मान लिये गये हैं, इसलिये कोई विवादकी जातीयकानां दीक्षान्वे प्रतिषेधाभावात्" -अर्थान वान नहीं रह जाती है, क्योंकि ऐसी कन्यासि चक्रवर्ती आदि के द्वारा विवाही गई म्लेच्छकन्याओं
के गर्भ में उत्पन्न मनप्योंकी संयमग्रहणपात्रतामें उत्पन्न हुए व्यक्तियोंकी संयमग्रहण-पात्रनामें प्रतिषेध
प्रतिषेध (गेक) श्रागम प्रन्थों में नहीं है, हम इंतु अथात राक ( श्रागमम ) नहा है। इपास मिलना परक वाक्यसे उन्होंने दमरे ममाधानमें निःशंकपना जुलना नब्धि मारका कथन है इसलिये वह यहाँ पर व मनोप प्रकट किया है । उद्धृत नहीं किया जाता है।
+ यहाँ पर 'अथवा' शब्द ही पहिले समाधानक इन दोनों उद्धरणीसे वकील माने यह आशय विषयमें ग्रन्थकारके असंतोषको जाहिर करता है क्योंकि
'अथवा' शन समाधानके प्रकारान्नरको मूचित करता लिया है कि "जा संयमग्रहणकी पात्रता उचगोत्री
है समुचयको नहीं, जिससे पहिले समाधान अन्धकारमनष्यक ही मानी गयी है तो चक्रवर्ती के माथ की भरुचि स्पष्ट मालूम पड़ती है। श्राये हुए म्लन्छ राजाओं के अागमप्रमाणसे जब वीरसेनाचार्यको वह समाधान स्वयं ही संयमग्रहणकी संभावना होने के कारण उच्चगोत्र संतोपकारक मालूम नहीं होना था तब उसे देनेकी कर्मका उदय मानना पड़ेगा और जब ये म्लेच्छ जलत क्या थी और उनके लिये क्या मजबूरी थी ?
-सम्पादक राजा लोग उच्च गोत्र वाले माने जा सकते हैं तो
श्री पं० साशचंद्रजी शास्त्रीने "तथा जातीय इन्हींके समान म्लेच्छ खंडोंमें रहने वाले मभी कानां दीक्षाहत्वे प्रतिपेधाभावान" इस हेनुपरक मनुष्योंको उच्चगोत्री माननेसे कोन इंकार कर वाक्यका दोनों समाधान-वाक्योंके साथ समन्वय कर सकता है । इस प्रकार जब म्लेच्छ खंडोंके अधि- राजा है; परन्तु वाक्यरचना व उसकी उपयोगिता
.. अनुपयोगिताको देखते हुए यह ठीक नहीं मालूम पड़ता वासी म्लेच्छ तक उच्चगोत्री सिद्ध हो जाते हैं तो फिर
है। "ततो न किञ्चिद्विप्रतिपिद्धम्" इस वाक्यार्थपाखंडके अधिवासी किसी भी मनष्यको नौच मनसतपरक वाक्यसे होता है और गोत्री कहनेका कोई साहस नहीं कर सकता है- "ततो न किचिद्विप्रतिषिद्धम" यह वाक्य दूसरे ऐसी हालतमें सभी मनष्योंको उचगोत्री मानना ही समाधान वापसे ही संबद्ध है-यह बात स्पष्ट हो।