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________________ ६०८ अनेकान्त [भाद्रपद, वीर-निर्वाण सं०२४६५ पहिले समाधानके विषय में ग्रंथकार सिर्फ इतना संयम ग्रहण करनेके अधिकारी हैं। दूसरी बात यह ही प्रकट करते हैं कि "जिन म्लेच्छराजाओंके चक्र भी है कि यदि म्लेच्छखण्डके अधिवासियोंमें वर्ती आदिके साथ वैवाहिकादि संबन्ध स्थापित हो संयमग्रहणपात्रता स्वभावसे विद्यमान रहती है चुके हैं उनके संयम ग्रहण करनेमें आगमका विरोध तो पहले तो ग्रन्थकारको पहिले समाधानमें अपनी नहीं है।" इससे यही निष्कर्ष निकलता है कि अरुचि जाहिर नहीं करनी थी । दूसरे, ऐसी ग्रन्थकार यही समझते थे कि आगम ऐसे लोगोंके हालतमें म्लेच्छखंडोंमें धर्म-कर्मकी प्रवृत्तिका असंसंयमधारण करनेका विरोधी तो नहीं है परन्तु भवपना कैसे बन सकता है बल्कि वहाँ तो हमेशा संयम धारण तभी हो सकता है जब कि संयम- ही धर्म-कर्मकी प्रवृत्ति रहना चाहिये; कारण कि ग्रहण-पात्रता व्यक्तिमें मौजूद हो, म्लेच्छ खंडके वहाँ पर हमेशा चतुर्थकाल ही वर्तता रहता है । अधिवासियों में संयमग्रहणपात्रता स्वभावसे नहीं और ऐसा मान लेने पर जयधवला व लब्धिसाररहती है बल्कि आर्यखंडमें आजाने पर आर्योंकी का यह शंका-समाधान निरर्थक ही प्रतीत होने तरह ही बाह्य प्रवृत्ति होजानेके बाद उनमें वह लगता है । इसलिये जयधवला व लब्धिसारके इन (संयमग्रहणपात्रता) आ सकती है लेकिन यह उद्धरणोंसे यही तात्पर्य निकलता है कि म्लेच्छनियम नहीं कि इस तरहसे उनमें संयमग्रहण पात्रता खण्डके अधिवासियों में स्वाभाविक रूपसे संयम आ ही जायगी।" इसीलिये 'अथवा' शब्दका प्रयोग ग्रहण-पात्रता नहीं रहती है, लेकिन आर्यखण्डमें करके प्रन्थकारने पहिले समाधानमें अरुचि जाहिर आजाने पर आर्योके साथ विवाहादि संबन्ध, की और दूसरे समाधानकी ओर उन्हें जाना सत्समागम, सदाचार आदिके द्वारा प्राप्त जरूर की पड़ा है तथा उस (दूसरे) समाधानकी पुष्टि जा सकती है। यह संयमग्रहण-पात्रता ( जैसा कि में उन्होंने स्पष्ट जाहिर कर दिया है कि चक्रवर्ती वकील सा० ने स्वीकार किया है ) उच्चगोत्र कर्मके आदिके द्वारा विवाही गयी म्लेच्छ कन्याओंके गर्भ उदयको छोड़कर कुछ भी नहीं है, जिसका कि में उत्पन्न हुए मनुष्योंकी संयमग्रहणपात्रतामें तो अनुमान सत्ति , सभ्यव्यवहार आदिसे किया आगम भी रोक नहीं लगाता है ® वे तो निश्चित ही जा सकता है । इसलिये जयधवला व लब्धिसारके दूसरी बात यह है कि इस वाक्यका दोनों समाधान- इस कथनसे गोत्रकर्म-परिवर्तनका ही अकाट्य वाक्योंके साथ समन्वय करनेसे प्रकारान्तर-सूचक 'अथवा' समर्थन होता है। शब्दका कोई महत्व नहीं रह जाता है, यह भी ध्यान यह भी एक खास बात है कि यदि वकील सा० देने योग्य है। पागम तो पहले प्रकारका भी विरोधी नहीं है, अरुचि जाहिर नहीं की, यह बात 'गोत्रकर्म पर यह बात लेखक द्वारा उपर प्रकट की जा चुकी है तब इस शास्त्रीजीका उत्तर लेख' नामक मेरे उस लेखके पढ़नेसे कथनमें, क्या विशेषता हुई, जिसके लिये 'बागम भी स्पष्ट समझमें भा सकती है जो अनेकान्तकी श्वी किरण मादिशब्दोंका प्रयोग किया गया है? -सम्पादक में प्रकाशित हुमा है। -सम्पादक
SR No.538002
Book TitleAnekant 1938 Book 02 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1938
Total Pages759
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size105 MB
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