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________________ वर्ष २, किरण ११] मनुष्यों में उन्नता-नीचता क्यो! के मतानुमारही जयधवला व लब्धिसारका तात्पर्य शूद्रों की कल्पना करनी पड़ी है। कुछ भी हो परन्तु लिया जायगा, तो वह कर्मकाण्डके विरुद्ध जायगा; इतना तो मानना ही चाहिये कि आर्यखएरके कारण कि कर्मकाण्डमें क्षायिक सम्यग्दृष्टि देश. अधिवासी जो मनुष्य नीच गोत्री हैं वे शूद्र हैं संयत मनुष्य तकको नीच गोत्री बतलाया है,जो कि और वे ही कर्मकाण्डके अनुसार पञ्चम गुणस्थानकर्मभूमिया मनुष्य ही हो सकता है । इस प्रकार वर्ती क्षायिक सम्यग्दृष्टि तक हो सकते हैं । इस जब कर्मकाण्ड मनुष्योंको उचगोत्री और नीचगोत्री विषयमें धवलसिद्धान्त भी कुछ प्रकाश गलता दोनों गोत्र वाला स्पष्ट बतलाता है तो ऐसी हालत हैमें वकील सा० का जयधवला और लब्धिसारके धवलसिद्धान्तमें गोत्रकर्मका निर्णय करते हुए उद्धरणोंका उससे विपरीत अर्थात "सभी मनष्य एक जगह लिखा है कि-"उज्वैर्गोत्रस्य कण्यापारः" उच्चगोत्री हैं" आशय निकालना बिल्कुल अयक्त है अर्थात उच्चगोत्र कर्मका व्यापार कहाँ होता है ? प्रत्युत इसके, जयधवलाकार व लब्धिसारके कर्ता- इम शंकाका समाधान करनेके पहिले बहुतसे के मतसे जब यह बात निश्चित है कि 'म्लेच्छखंड- पूर्वपक्षीय समाधान व उनके खण्डन के सिलसिले में के अधिवासियोंमें संयमग्रहणपात्रता न होने पर लिखा है- "मेषवाकुकुखायुत्पत्तौ ( उच्चैर्गोत्रस्य भी वह आर्यखण्डमें आ जाने के बाद सत्समागम म्यापारः) काल्पनिकाना तेपी परमार्थतोऽसवान, वितआदिसे प्राप्त की जा सकती है तो इसका सीधा बामण-साधुष्वपि उम्पेगोत्रस्योदयदर्शनाच"। सादा अर्थ यही होता है कि उनके गोत्र-परिवर्तन अर्थ- “यदि कहा जाय कि इक्ष्वाकु कुल आदि होजाता है और ऐमा मानना गोम्मट्रसार सिद्धान्त क्षत्रिय कुलाम उत्पन्न होने में उच्चगोत्र कर्मका ग्रन्थके साथ एक वाक्यताके लिये आवश्यक भी है। व्यापार है अर्थात "उचगोत्र कर्मके उदयसे जीव यह गोत्र-परिवर्तन करणानयोग, द्रव्यानयोग, इक्ष्वाकुकुल आदि क्षत्रिय कुलों में उत्पन्न होता है" चरणानुयोग और प्रथमानयोगस विरुद्ध नहीं- ऐसा मान लिया जाय तो ऐमा मानना ठीक नहीं यह बात हम अगले लेखद्वारा बतलावेंगे। है क्योंकि एक तो ये इक्ष्वाकु आदि क्षत्रिय कुल आर्यखण्डके विनिवामी मनुष्यों में भी कोई वास्तविक नहीं है, दुसरं वैश्य, ब्राह्मण और माधुउच्चगोत्री और कोई नीचगोत्री हश्रा करते हैं और अमि भी उदगोत्र कमका उदय देखा जाता है जो नीचगोत्री हुआ करते हैं वे ही शूद्र कहलाने अर्थान आगममें इनको भी उच्चगोत्री बतलाया लायक होते हैं, इसका अर्थ आज समयमें यह गया है" नहीं लेना चाहिये कि जो शूद्र हैं वे नीच गोत्री हैं, इन सभी बातोंके ऊपर यथाशक्ति और यथाकारण कि भाजके समयमें बहतमी उच्च जातियों- संभव अगले लेख-द्वारा प्रकाश डाला जायगा। का भी शूद्रोंके अन्दर समावेश कर दिया गया है। विवाग्रम्पका यह उद्धरण मुस्तार मा.. और जहाँ तक हमारा खयाल जाता है शायद यही “ऊँचगोत्रका म्यवहार कहाँ ?" शीर्षक भनेकान्तकी वजह है कि जैनविद्वानोंको सन शुद्र और असन गत दूसरी किरणमें प्रकाशित लेख पर लेनिया गया है।
SR No.538002
Book TitleAnekant 1938 Book 02 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1938
Total Pages759
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size105 MB
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