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________________ वर्ष २, किरण ११] मनुष्यों में उच्चता-नीचता स्यो ! उदय हो उसे उच्चगोत्री और जिसके नीचगोत्र यदि ये मभी देव उबगोत्री माने जामकते हैं तो कर्मका उदय हो उसे नीचगोत्री समझना चाहिये मभी मनुष्योंको भी मनुष्यजातिकी समानताके परंतु उच्च तथा नीच गोत्र कर्मका उदय हमारी कारण उप या नीच दोनोंमें से एक गोत्र वाला बुद्धिके बाहिरकी वस्तु होनेके कारण इस मानना चाहिये। मालूम पड़ता है भीयुत बाबू विवाद के अन्त करनेका कारण नहीं हो सकता है। सुरजभानुजी वकीलनं इसी बिना पर भनेकान्तकी यदि नारकी, तिर्यंच और देवोंकी तरह सभी गत पहिली किरणमें मनुष्यगतिमें उबगोत्रके मनुष्योंको उच्च या नीच किसी एक गोत्रवाला अनुकूल कुछ विशेषतायें बतला कर सभी मनुष्यों माना जाता तो संभव था कि उच्चता और को उबगोत्री सिद्ध करनेकी कोशिश की है, और नीचताके इस विवादमें कोई नहीं पड़ता; कारण इसके लिये उन्होंने कर्मकाण्ड, जयधवला, और कि ऐसी हालतमें उच्चता और नीचताके व्यवहार- लब्धिमारके प्रमाणोंका मंग्रह भी किया है। में क्रमसे उच्चगोत्र और नीचगोत्र कर्मके उदयको मनप्यगतिको विशेषताओंके विषयमें उन्होंने कारण मान कर सभी लोगोंको आत्मसंतोप हो लिखा है कि-"मनुष्यपर्याय सर्वपर्यायोंमें उत्तम मकता था। लेकिन जब सभी मनुष्य जातिकी दृष्टि- मानी गयी है यहाँ तक कि वह देवोंसे भी ऊँची है में समान नजर आरहे हैं तो युक्ति तथा अनुभव- तब ही तो उपजातिके देव भी इम मनुष्यपर्यायको गम्य प्रमाण मिले बिना बद्धिमान व्यक्तिके हृदयमें पाने के लिये लालायित रहते हैं, मनुष्यपर्यायकी "क्यों तो एक मनुष्य उच गोत्री है और क्यों प्रशंसा सभी शाम्रोंने मुक्तकंठसे गायी है ।" इन दसरा मनुष्य नीचगोत्री है ? नथा किमको हम विशेषताओं के आधार पर श्रीयुत वकील सा० सभी नीचगोत्री कहें और और किमको उच्च गोत्री कहें ? मनुष्योंको उच्च गोत्री सिद्ध करना चाहते हैं। परंतु इस प्रकार प्रश्न उठना स्वाभाविक बान है और जिस प्रकार कायली घोड़ोंकी प्रसिद्धि होनेपर भी यह ठीक भी है। कारण कि मानों नरकोंक नारकी काबुलके सभी घोड़े प्रसिद्धि पानेके लायक नहीं परस्परमें कुछ न कुछ उपता-नीचताका भंद लियं होते उसी प्रकार मनुष्यगतिकी इन विशेपताओंके हुए होने पर भी यदि नारक जातिकी अपेक्षा मभी आधार पर सभी मनुष्योंको उचगोत्री नहीं नीचगोत्री माने जा सकते हैं, तिर्यचोंमें भी एक माना जा सकता है। शास्त्रों में जो मनुष्यपर्यायकी न्द्रियसे लेकर पंचेन्द्रिय तक और प्रत्येककी सभी प्रशंसा गीत गाये गये हैं और देव भी जो जातियों में परस्पर कुछ न कुछ नीच-ऊँचका भेद मनप्य पर्यायको पानेके लिये लालायित रहते हैं प्रतीत होते हुए भी यदि ये सभी तिर्यच तिर्यग् वह इसलिये कि एक मनुष्यपर्याय ही ऐसी है जातिकी अपेक्षा नीच माने जा सकते हैं और देवों जहाँसे जीव सीधा मुक्त हो सकता है, लेकिन में भी भवनवासी व्यन्तर-ज्योतिष्क वैमानिकोंमें इसका यह अर्थ तो कदापि नहीं, कि जो मनुष्य तथा प्रत्येकके अन्तर्भेदोंमें परस्पर नीच-ऊँचका पर्याय पा लेता है वह मुक्त हो ही जाता है । इमी भेद रहते हुए भी देवजातिकी समानताकै कारण मनुष्यपर्यायसे जीव सप्तम नरक और यहां तक
SR No.538002
Book TitleAnekant 1938 Book 02 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1938
Total Pages759
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size105 MB
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