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________________ १८८ अनेकान्त [पौष, वीर-निर्वाण सं० २४६५ हूँ। दूसरे शब्दोंमें उसे न तो अपने बापके ऊँचे बना हुआ है-धर्मका श्रद्धान र आचरण न कुलका घमण्ड करना चाहिए और न अपनी होनेके कारण जो नित्य ही पापोंका संचय करता माताके ही ऊँचे वंशका। रहता है उसको चाहे जो भी कुलादि सम्पदा प्राप्त जो घमण्ड करता है वह स्वभावसे ही दूसरों हो जाय वह सब व्यर्थ है-उसका वह पापाम्रव को नीचा समझता है। घमण्ड के वश होकर उसे एक-न-एक दिन नष्ट कर देगा और वह खुद किसी साधर्मी भाईको-सम्यग्दर्शनादिसे युक्त उसके दुर्गति-गमनादिको रोक नहीं सकेगी। व्यक्तिको–अर्थात जैन-धर्म-धारीको नीचा सम भावार्थ, जिसने सम्यक्तपूर्वक धर्म धारण करके झना अपने ही धर्मका तिरस्कार करना है। क्योंकि पापका निरोध कर दिया है वह चाहे कैसी ही धर्मका श्राश्रय-अाधार धर्मात्मा ही होते हैं ऊँची-नीची जाति वा कुलका हो, संसारमें वह चाहे धर्मात्माओंके बिना धर्म कहीं रह नहीं सकता। कैसा भी नीच समझा जाता हो, तो भी उसके और इसलिए धर्मात्माांक तिरस्कारसं धर्मका पास सब कुछ है और वह धर्मात्माओंके द्वारा तिरस्कार स्वतः हो जाता है। कुल-मद वा जाति- मान तथा प्रतिष्ठा पानेका पात्र है-तिरस्कारका मद करनेका यह विष-फल धर्मके श्रद्धानमें अवश्य पात्र नहीं। और जिसको धर्मका श्रद्धान नहीं, धर्मपर जिसका आचरण नहीं और इसलिए जो ही बट्टा लगाता है, ऐसा श्री समन्तभद्र स्वामीने अपने रत्नकरण्डश्रावकाचारकं निम्न पदा नं० २६ मिथ्याष्टि हुश्रा निरन्तर ही पाप संचय किया में निर्दिष्ट किया है करता है वह चाहे जैसी भी ऊँचसे ऊंच जातिका, कुलका अथवा पदका धारक हो, ब्राह्मण हो, क्षत्रिय स्मयेन योऽन्यानत्येति धर्मस्थान् गर्विताशयः । हो.शुक्ल हो, श्रोत्रिय हो, उपाध्याय हो, सूर्यवंशी हो, सोऽत्येति धर्ममात्मीयं न धर्मो धार्मिकैविना ॥ चन्द्रवंशी हो, राजा हो, महाराजा हो, धन्नासेठ हो, धनकुवेर हो, विद्याका सागर वा दिवाकर हो, इसी बातको प्रकारान्तरसे स्पष्ट करते हुए अगले तपस्वी हो, ऋद्धिधारी हो, रूपवान हो, शक्तिशाली श्लोक नं० २७ में बताया है कि-जिमके धर्माचरण । - हो, और चाहे जो कुछ हो-परन्तु वह कुछ भी नहीं द्वारा पापोंका निरोध हो रहा है-पापका निरोध हो, करनेवाली मम्यग्दर्शनम्पी निधि जिसके पास है। पापाव के कारण उसका निरन्तर पतन ही मौजूद है-उसके पास तो सब कुछ है, उसको होता रहेगा और वह अन्तको दुर्गतिका पात्र अन्य कुलैश्चर्यादि सांसारिक सम्पदाओंकी अर्थान बनेगा। समन्तभद्रका वह गम्भीगर्थक श्लोक इम सांसारिक प्रतिछाके कारणोंको क्या जरूरत है ? प्रकार है:वह तो इस एक धर्म-सम्पत्तिके कारण ही सब कुछ यदि पापनिरोधोऽन्यसम्पदा किं प्रयोजनम् । प्राप्त करने में समर्थ है और बहुत कुछ मान्य तथा पूज्य होगया है । प्रत्युत इमके जिसके पापोंका पानव अथ पापात्रवोऽस्त्यन्यसम्पदा किं प्रयोजनम् ।।
SR No.538002
Book TitleAnekant 1938 Book 02 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1938
Total Pages759
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size105 MB
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