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________________ तत्वचची जाति-मद सम्यक्त्वका बाधक है [ले०-श्री० बाबू सूरजभानजी वकील ] शर्ममार्ग पर क़दम रखने के लिए जैन-शास्त्रों में आदिपुराणादि जैन-शास्त्रोंके अनुसार चतुर्थ 7 सबसे पहले शुद्ध सम्यक्त्व ग्रहण करनेकी कालमें जैनी लोग एकमात्र अपनी ही जातिमें बहुत भारी आवश्यकता बतलाई है। जब तक श्रद्धा विवाह नहीं करते थे किन्तु ब्राह्मण तो ब्राह्मण, अर्थात दृष्टि शुद्ध नहीं है तब तक सभी प्रकारका क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र इन चारों ही वर्णकी कन्याओं धर्माचरण उस उन्मसकी तरह व्यर्थ और निष्फल से विवाह कर लेता था; क्षत्रिय अपने क्षत्रिय है जो इधर-उधर दौड़ता फिरता है और यह वर्णकी, वैश्यकी तथा शूद्रकी कन्याओंसे और वैश्य निश्चय नहीं कर पाता कि किधर जाना है अथवा अपने वैश्य वर्णकी तथा शूद्र वर्णकी कन्यास भी उस हाथीके स्नान-समान है जो नदीमें नहाकर विवाह कर लेता था। बादको सभी वर्गों में परस्पर आपही अपने ऊपर धूल डाल लेता है। विवाह होने लग गये थे, जिनकी कथाएँ जैन-शास्त्रों सम्यक्त्वको मलिन करनेवाले पञ्चीम मल में भरी पड़ी है। इन अनेक वर्णोंकी कन्याओंसे दोषोंमें आठ प्रकारके मद भी हैं, जिनमें सम्यक्त्व जो सन्तान होती थी उसका कुल तो वह समझा भ्रष्ट होता है-उसे बाधा पहुँचती है । इनमें भी जाता था जो पिताका होता था और जाति वह जाति और कुलका मद अधिक विशेषताको लिए हुए मानी जाती थी जो माताकी होती थी। इसी है।सम्यग्दृष्टि के लिए ये दोनों ही बड़े भारी दूषण कारण शाबों में वंशसे सम्बन्ध रखनेवाले दो हैं। मैं एक प्रतिष्ठित कुलका हूँ. मेरी जाति ऊँची है, प्रकारके मद वर्णन किए हैं। अर्थात यह बतलाया ऐसा घमण्ड करके दूसरोंको नीच एवं तिरस्कारका है कि न तो किसी सम्यग्दृष्टिको इस बातका पात्र समझना अपने धर्मश्रद्धानको खराब करना घमण्ड होना चाहिए कि मैं अमुक ऊँचे कुलका है, ऐसा जैन-शास्त्रोंमें कथन किया गया है। हूँ और न इस बातका कि मैं अमुक ऊँची जातिका
SR No.538002
Book TitleAnekant 1938 Book 02 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1938
Total Pages759
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size105 MB
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