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अनेकान्त
पौष, वीर-निर्वाण सं० २४६५
यवनशबरपुलिन्दादयः" (सर्वा०, राज०)-अर्थात अति सूक्ष्म है-वह छद्मस्थोंके ज्ञानगोचर नहीं, शक, यवन, शबर और पुलिन्दादिक लोगोंको उसके आधारपर कोई व्यवहार चल नहीं सकताकर्मभूमिज म्लेच्छ समझना चाहिए । श्लोकवार्तिक- और 'आदि' शब्दका कोई वाच्य वतलाया नहीं में थोड़ासा विशेष किया है-अर्थान यवनादिकको गया, जिससे दूसरे व्यावर्तक कारणोंका कुछ म्लेच्छ बतलानेके अतिरिक्त उन लोगोंको भी बांध हो सकता। म्लेच्छ बतला दिया है जो यवनादिकके प्राचारका
शेष रही आर्योंकी बात, आर्यमात्रका कोई पालन करते हों। यथा:
खास व्यावर्तक लक्षण भी इन ग्रन्थोंमें नहीं हैं-- कर्मभूमिभवा म्लेच्छाः प्रसिद्धा यवनादयः ।।
आर्योंके ऋद्धिप्राप्त-अनृद्धिप्राप्त ऐसे दो भेद करके . स्युः परे च तदाचारपालनाद्वहुधा जनाः ॥
ऋद्धिप्राप्तोंके सात तथा पाठ और अनृद्धिप्राप्तोंके परन्तु यह नहीं बतलाया कि यवनादिकका
क्षेत्रार्य, जात्यार्य, कार्य, चरित्रार्य, दर्शनार्य ऐसे । वह कौनसा आचार-व्यवहार है जिसे लक्ष्य करके ही।
पाँच भेद किये गये हैं। राजवार्तिकमें इन भेदोंकिसी समय उन्हें 'म्लेच्छ' नाम दिया गया है, जिस
का कुछ विस्तारके साथ वर्णन जरूर दिया है; से यह पता चल सकता कि वह प्राचार इस समय । भी उनमें अवशिष्ट है या कि नहीं और दूसरे गोलमोल कर दिया है-"क्षेत्रार्याःकाशीकौशला
__परन्तु क्षेत्रार्य तथा जात्यार्यके विषयको बहुत कुछ आर्य कहलानेवाले मनुष्योंमें तो वह नहीं पाया
। दिषु जाताः । इक्ष्वाकुजातिभोजादिकुलेषु जाता ! हाँ, इससे इतना श्राभास जरूर मिलता
जाता जात्यायः” इतना ही लिखकर छोड़ दिया है कि जिन कर्मभूमिजोंको म्लेच्छ नाम दिया गया है! और कार्य के सावद्यकार्य, अल्पसावद्यहै वह उनके किसी आधारभेदके कारण ही दिया कार्य. असावद्यकार्य ऐसे तीन भेद करके गया है-देशभेदके कारण नहीं। ऐसी हालतमें .
___ उनका जो स्वरूप दिया है उससे दोनोंकी पहचानउस आचार-विशेषका स्पष्टीकरण होना और भी
1 में उस प्रकारकी वह सब गड़बड़ प्रायः ज्योंकी त्यों ज्यादा जरूरी था; तभी आर्य-म्लेछकी कुछ व्यावृत्ति उपस्थित होजाती है. जो उक्त भाष्य तथा प्रज्ञापनाअथवा ठीक पहचान बन सकती थी। परन्तु ऐसा सत्रके कथनपरसे उत्पन्न होती है। जब असि, नहीं किया गया, और इसलिए आर्य-म्लेच्छकी मषि, कृषि, विद्या, शिल्प और वाणिकर्मसे आजीसमस्या ज्यों की त्यों खड़ी रहती है-यह मालूम
मालूम विकाकरने वाले, श्रावकका कोई व्रत धारण करने नहीं होता कि निश्चितरूपसे किसे 'आर्य' कहा
वाले और मुनि होने वाले (म्लेच्छ भी मुनि होसकते जावे और किसे 'म्लेच्छ'! __ श्लोकवार्तिकमें श्रीविद्यानन्दाचार्यने इतना
हैं *) सभी 'आर्य' होते हैं तब शक-यवनादिकको और भी लिग्वा है
म्लेच्छ कहने पर काफी आपत्ति खड़ी होजाती है
और आर्यम्लेच्छकी ठीक व्यवृत्ति होने नहीं "उचैर्गोत्रोदयादेरार्याः,
पाती। नीचैर्गोत्रोदयादेश्च म्लेच्छाः।" ।
___हाँ, सर्वार्थसिद्धि तथा राजवर्तिकमें 'गुणैर्गुसअर्थान--उखगोत्रके उदयादिक कारणसे आर्य बद्भिर्वा अर्यन्त इत्यार्याः' ऐसी आर्यकी निरुक्ति होते हैं और जो नीचगोत्रके उदय आदिको लिये
(शेष पृष्ठ २१० पर देखिए) दुए होते हैं उन्हें म्लेच्छ समझना चाहिये। . - यह परिभाषा भी आर्य-म्लेच्छकी कोई व्याव- देखो, जयधवलाका वह प्रमाण जो इसी वर्षकी तक नहीं है, क्योंकि उच-नीचगोत्रका उदय तो पहली किरणमें पृ०४० पर उद्धृत है।