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________________ वर्ष : किरण ३] आर्य और म्लेच्छ १८५ 'एवमाइ' शब्दोंके भीतर संनिहित है. म्लेच्छ व्याघात उपस्थित होगा-न म्लेच्छत्वका ही कोई कहना समुचित प्रतीत नहीं होता और न वह ठीक निर्णय एवं व्यवहार बन सकेगा और न म्लेच्छत्वका कोई पूरा परिचायक अथवा लक्षण आर्यत्वका ही। ही हो सकता है। रही शिष्ट-सम्मत भाशदिक के व्यवहारोंकी __ श्रीमलयगिरि मूरिने उक्त प्रजापनासूत्रकी बात, जब केवली भगवानकी वाणीको अठारह " टीकामें लिखा है महाभाषाओं तथा सातसौ लघु भाषाओं में अनुवा"म्लेच्छा अव्यक्तभाषासमाचाराः," दित किया जाता है तब ये प्रचलित सब भाषा तो शिष्टसम्मत भाषाएँ ही समझी जायेंगी, जिनमें अरबी "शिष्टासम्मतसकल व्यवहाग म्लेच्छाः।" फार्सी, लैटिन, जर्मनी, अप्रेजी, फ्रांसीसी, चीनी अर्थात--म्लेच्छ वे हैं जो अव्यक्त भाषा और जापानी आदि सभी प्रधान प्रधान विदेशी बोलते हैं--ऐसी अस्पष्ट भाषा बोलते हैं जो । भाषाओंका समावेश हो जाता है। इनसे भिन्न अपनी समझमें न आवे । अथवा शिष्ट (सभ्य) तथा बाहर दूसरी और कौनसी भाषा रह जाती है पुरुष जिन भाषादिक व्यवहारोंको नहीं मानते जिसे म्लेच्छोंकी भाषा कहा जाय ? बाकी दूसरे उनका व्यवहार करने वाले सब म्लेच्छ हैं। शिष्टसम्मत व्यवहारोंकी बात भी ऐसी ही है ये लक्षण भी ठीक मालूम नहीं होते; क्योंकि कुछ व्यवहार ऐसे हैं जिन्हें हिन्दुस्तानी असभ्य प्रथम तो जो भाषा आर्योंके लिये अव्यक्त हो वही समझते हैं और कुछ व्यवहार ऐसे हैं जिन्हें उक्त भाषाभाषी अनार्योंके लिये व्यक्त होती है विदेशी लोग असभ्य बतलाते हैं और उनके तथा पार्योंके लिये जो भाषा व्यक्त हो वह अनार्यो कारण हिन्दुस्तानियोंको असभ्य'-अशिष्ट एवं के लिये अव्यक्त होती है और इस तरह अनार्य Incivilizad समझते हैं। साथही कुछ व्यवहार लोग परस्परमें अव्यक्त भाषा न बोलनेके कारण हिन्दुस्तानियोंके ऐसे भी हैं जो दूसरे हिन्दुस्तानियोंकी आर्य हो जावेंगे तथा आर्य लोग ऐसी भाषा बोलने- दृष्टि में असभ्य हैं और इसी तरह कुछ विदेशियों के कारण जो अनार्योंके लिये अव्यक्त है-उनकी के व्यवहार दमरे विदेशियों की दृष्टिमें भी असभ्य समझमें नहीं पाती-म्लेच्छ ठहरेंगे । दूसरे, पर हैं। इस तरह शिष्टपुरुषों तथा शिष्टसम्मत स्परके सहवास और अभ्यासके द्वारा जब एक व्यवहारोंकी बात विवादस्पन्न होने के कारण इतना वर्ग दुसरे वर्गकी भाषासे परिचित हो जावेगा तो कहदेने मात्र ही आर्य और म्लेच्छकी कोई इतने परसे ही जो लोग पहले म्लेच्छ समझे जाते व्यावृत्ति नहीं होती-ठीक पहचान नहीं बनती। थे वे म्छेच्छ नहीं रहेंगे-शक-यवनादिक भी और इसलिए उक सब लक्षण मदोष जान म्लेच्छवकी कोटिस निकल जाएँगे, आर्य हो पड़ते हैं। जावेंगे। इसके सिवाय, ऐसे भी कुछ देश है जहाँ. अब दिगम्बर प्रन्योंको भी लीजिए। तन्वार्थ के आर्योंकी बोली-भाषा दूसरे देशके आर्य लोग सूत्रपर दिगम्बरोंकी सबसे प्रधान टीका सर्वार्थ नहीं समझते हैं, जैसे कन्नड-तामील-तेलगु भाषा- सिद्धि, राजवार्तिक तथा श्लोकवार्तिक हैं। इनमें ओंको इधर यू० पी० तथा पंजाबके लोग नहीं किसी में भी म्लेच्छका कोई लक्षण नहीं दिया समझते। अतः इधरकी दृष्टिसे कन्नड-तामील- मात्र म्लेच्छोंक अन्तरद्वीपज और कर्ममिज ऐसे तेलगु भाषाओंके बोलने वालों तथा उन भाषा- दो भेद बतलाकर अन्तरद्वीपजोंका कुछ पता नोंमें जैन ग्रन्थोंकी रचना करने वालोंको भी बतलायाहे और कर्मभूमिज म्लेच्छोंक विषयमें म्लच्छ कहना पड़ेगा और यों परस्परमें बहुत ही इतना ही लिख दिया है कि "कर्मभूमिजाः शक
SR No.538002
Book TitleAnekant 1938 Book 02 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1938
Total Pages759
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size105 MB
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