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अनेकान्त
की भयानकता आतंक बन रही है, दामिनी की अस्थिर ज्योति दृष्टि को उदभ्रान्त बना रही है। मगर कहाँ -१
वहाँ, जहाँ पर अभागे प्राणी सोने के लिये जगह नहीं पा रहे, बैठे बैठे रात बिता रहे हैं। कभी रोते हुए आकाश की ओर देखते हैं, और कभी अपनी दशा की ओर ।
वे काले बादल कहीं उनसे स्पर्द्धा तो नहीं कर रहे" .१
गुदड़ों में लुके - छिपे बच्चे इधर उधर लुढ़क रहे हैं- कुछ सोये, जागते से। बड़ा लड़का - 'मीना' जिसकी आयु आठ नौ साल की होगी, मगर दुर्बल शरीर सात आठ वर्ष से अधिक का उसे समझने नहीं देता - रूपा के समीप, सर्दी के मारे ठिठुरता, पेट में घौटू छिपाए बैठा है।
रूपा की दोनों आँखें पानी बरसा रही हैं। वह सोच रही है - 'महीना हो गया, मगर मनिआर्डर आज भी नहीं आया, नौ तारीख होगई । क्या बात हुई ? पिछले महीने तो पाँचवीं को ही मिल गया था। छः, सात, आठ, नौ, चार दिन हो गए। जरूर कोई न कोई वजह हुई - नहीं, वे भला मनिआर्डर न भेजते...? कहीं बीमार तो नहीं हो गये, सिक- रिपोर्ट में ? – और दुखद, अज्ञान-भय ने उसे तड़पा दिया । परन्तु - तुरन्त ही विचार मुड़ा 'किसी नई नवेली के जाल में तो नहीं पड़ गए ? बड़ा शहर है, क्या मुश्किल ? तिस पर ठहरा मर्दों का मन, क्या फिक्र कि गाँव में बाल- बक्चे भूखे नंगे ....११
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ईर्षा की एक हल्की लहर उसके मुँह पर दौड़ गई ! स्त्री की शंकित मनोवृत्ति कुछ पनपती, अगर कुछ कारण पाती !... ... या परस्थिति ठीक होती । .." सामने बैठा था, मीना जाड़े के मारे सिकुड़ा हुआ ! फिर विचारों को फिरते क्या देर
[ वर्ष २, किरण २
लगती ! वह सोचती - कल जरूर आजाएगा-मनिआर्डर ! रुक नहीं सकता ! इतने दिन जो हो गए, कल दशवीं तारीख है न १ - पाँच को भी भेजा होगा, तब भी आजायगा ! कल यह बात नहीं कि 'न आये !"
विचारों की धोरा आगे बढ़ती - 'छह रुपये तो अनाज वाले को देने हैं, वह जान लिये लेता है, फिर उससे लाना भी तो है - अनाज ! घर क्या है ? - बहुत होगा, तो कल तक के लिये ! - और तीन रुपये कपड़े वाले के, उस बेचारे को तो बहुत दिन हो गये ! और कपड़ा भी तो लाना हैएक-एक कुरता सबको, एक फतूली ! मुझे ! क़रीब चौदह-गज, दो-रुपये का ! तेल, मिर्च, मसाला और वैद्य जी के दवा के पैसे! कुछ हो, 'मनिआर्डर' आये तो सब कर लूँगी ! छुन्नों को पैंस का दूध पिलाऊँगी, मीना जूतों के लिये अड़ रहा है - दिलवा दूँगी, चार-छ: आने वाले !”
और उसी समय - छुनो, साल भर की दुधमुँही बच्ची, भूख और सर्दी के मारे रो उठती है !
''काहे को रोती है- मेरी !' रूपा उस छाती से लगा लेती है ।
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आकाश में हवा और पानी दोनों मिल रहे हैं ! अँधियारी उन्हें छिपाना चाहती है, पर असमर्थ ... ! X X X ( ३ ) दूसरे दिन, सुबह नौ बजे - मीना छप्पर में बैठा है । रूपा दहलीज में ! दोनों के मन, दोनों की दृष्टि प्रतीक्षा में लग रही है !
'देख रे ! डाकिया आया कि नहीं, धूप तो आधे छप्पर पर आ गई। यही वक्त तो उसके आने का होता है!' -रूपा ने भ्रमित दृष्टि को मीना के मुख पर गड़ाते हुये कहा ।
'देख तो रहा हूँ-माँ ! अभी तो ........