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अनेकान्त
[वर्ष २, किरण १
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() एते.(मल्लेहणाए० ६८१, एगम्मि हालतमें श्रीविजय और अपराजितसूरिकी एकनाभवग्गहणे० ६८२) श्रीविजसाचार्योनेच्छति ।" में काई सन्देह नहीं रहता। (१०) "श्रीविचार्योऽत्र प्राणापायविधाग- आशा है साहित्य-प्रेमी और जिनवाणी के
भक्त महाशय शीघ्र ही उक्त प्राकृत टीका और विचयोनामधर्मध्यान 'प्राणापाय' इत्यस्मिन्पाठे ।
दोनों टिप्पणों को अपने अपने यहाँके शास्त्रस्वपायविचयो नामेति व्याख्यत् ।"
भंडारोंग खोजनेका पूरा प्रयत्न करेंगे । जो भाई -कल्लाणपावगाण० गा० १७१२ खोजकर इन ग्रंथों को देखने के लिये मेरे पास (११) "श्रीविजयस्तु 'दिस्मदि दंता व भेजेंगे उनका मैं बहुत आभारी हूँगा और उन उपरीति । पाठं मन्यमानो ज्ञायते ।
ग्रंथों परसे और नई नई तथा निश्चित बातें खोज
करके उनके सामने रक्तूंगा । अपने पुरातन --जदि तस्स उत्तमंग० गा० १५९९
साहित्य की रक्षा पर सबको ध्यान देना चाहिये। उपयुक्त उल्लेखोंगे विजयाचार्यके नामसे
यह इस समय बहुत ही बड़ा पुण्य कार्य है । ग्रंथोंजिन वाक्योंका अथवा विशेषताओंका कथन के नष्ट हो जाने पर किसी मूल्य पर भी उनकी किया गया है वे सब अपराजितमूरिकी उक्त प्राप्ति नहीं हो सकेगी और फिर सिवाय पछतानेटीकामें ज्योंकी त्यों पाई जाती हैं। जिन गाथाओं के और कुछ भी अवशिष्ट नहीं रहेगा । अत: को अपराजितसूरि ( श्रीविजय ) ने न मानकर समय रहते सबको चेत जाना चाहिये । उनकी टीका नहीं दी है उनके विषय में प्रायः इस प्रकार के वाक्य दिये हैं-"अत्रेय गाथा सूत्रेऽनु
वीर-सेवा-मंदिर, सरसावा, श्रयते”, अत्रेमे गाथे सूत्रेऽनुश्रूयेते ।" ऐसी
ता० १०-८-१९३८
भावना कुनय कदाग्रह ना रहे, रहे न पापाचार | अनेकान्त ! तब तेज से हो विरोध परिहार ॥१॥ सूख जायँ दुर्गुण सकल, पोषण मिले अपारसद्भावोंको लोक में सुखी बने-संसार ॥२॥
-'युगवीर'