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२, किरण ५ ]
धर्मकी हिंसाको बौद्ध तथा जैनधर्मोकी भांति पाप नहीं कहा गया है | पर जैनधर्म तथा बौद्ध धर्मकी कृपा से यह हिंसा भी बन्द होगई। जैनधर्मकी विरोधी हिंसा कर्मयोगकी हिंसा से मिलती जुलती है। देशकी विपत्तिको टालने की अथवा आक्रमणकारियोंसे रक्षण करनेकी यह हिंसा ग्रहस्थोंके लिये शास्त्रसम्मत है । फिरभी जैनधर्मियोने बहुत समयसे इसे प्रोत्साहन देना प्रायः बन्द कर दिया है
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बौद्ध तथा जैनधर्म पर एक सरसरी नज़र
हिंदूसमाजकी वर्णव्यवस्था न जैनधर्म में पाई जाती हैं और न बौद्धधर्ममं ही । जैन और बौद्धधर्मके नाते इन दोनों धर्मो में सामाजिक अधिकार समानता से प्राप्त होत रहे हैं । और जैन तथा बौद्ध समाजमें प्रवेश हिंदूधर्म के चारों वर्णों में से होता रहा है, किन्तु श्राज इस सम्बन्ध में अपराधी जैनसमाज ही पाया जाता है, जो उमी मर्ज़को स्वतः पुष्ट कर रहा है जिसकी दबाके रूपमें उसने यह अङ्ग हिन्दूसमाज के सामने विराट तथा सुन्दर रूप में अन्तिम तीर्थंकर भगवान् महावीरके युग में पेश किया था। वैसे तो भगवान आदिनाथ के जन्मकाल में ब्राह्माणोंको छोड़कर शेष तीन वर्ण उपस्थित थे ही और उनके सुपुत्र सम्राट भरतचक्रवतीने ब्राह्मण्वर्गकी आव श्यकता होने पर उसे भी कायम किया था, किन्तु वर्ण शृङ्खला भी धीरे धीरे ढीली पड़ती गई, जिसके कारण आज जैनसमाज वैश्यसमाजका पर्याय होगया. यद्यपि जैन तीर्थंकर क्षत्रिय वर्णके थे तथा बुद्ध भगवान् भी क्षत्रिय वर्णके थे।
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आश्रम व्यवस्था मोटे रूपमें जैनधर्म मानता है भेद केवल इतना ही है कि वानप्रस्थ तथा सन्यास यहां सब वर्णोंके लिए खुला हुआ हैं जबकि हिन्दूसमाज में चतुर्थवर्णको वे प्राप्त नहीं ? बौद्धधर्ममें तो तृतीय आश्रम यानी वानप्रस्थकी कठोर तपस्या तथा यातना किसी भी
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बौद्ध के लिये नियत नहीं, किन्तु सन्यास में भी नग्नत्व द्वारा जैन समाजने जो उत्कृष्टता लादी वह बौद्धधर्म में नहीं ।
हिन्दू धर्म में आत्माका परमात्मा के अंग रूपमें जो अमरताका सिद्धान्त स्थापित किया गया है, वह जैनधर्मको उस तरह से मान्य नहीं, क्योंकि जैन धर्मने परमात्माको यानी किसीको विश्वकर्ताके रूपमें माना ही नहीं - बौद्ध धर्मकी भी प्रायः यही धारणा है। जैन - सिद्धांत में जड़ प्रकृति तथा चैतन्य आत्मा अनादिगे इसीतरह कर्मके चक्र में बँधे हुए चले आ रहे हैं । बौद्ध धर्म आत्माकी नित्य नहीं मानता | जैन धर्ममं कर्मको वस्तु रूपमें अर्थात् उस Matter रूप में जिसे वे पुद्गल कहते हैं, माना है। हालांकि हिन्दू धर्म में वैसा नहीं । कि तु इस कर्मको भी जैन धर्म अर्थात् सूक्ष्म माना है। कर्मकी विवेचना और उनका संग्रह तथा नाशका वर्गीकरण जैन धर्म में एक बड़ी सुन्दर वस्तु है ।
सनातन धर्म के ईश्वर के समीपवर्ती जैन धर्मके तीर्थकर हैं, जो आदर्श- गुणोंग मुसज्जित विशेष व्यक्ति कहे जाते हैं, और जिनतक पहुँचनेका प्रयास हर एक जैनीका परम कर्तव्य है । यही धारणा बौद्ध धर्मके महायानपंथकी है, जो भगवान बुद्धको प्रायः ईश्वर के स्थानपर विटलाता है । जैन तथा बौद्ध दोनों धर्म ब्राह्मणत्वकी विशेषताके हामी नहीं | जैनियोंके कुल तीर्थंकर क्षत्रिय वर्णके थे । भगवान् बुद्ध भी इसी वर्णके महापुरुष थे । वेदको जिसतरह हिन्दू धर्म में भगवान्का वाक्य माना जाता हैं, उसतरहसे जैन-धर्म उसे मानने को तैयार नहीं । उनके यहां यदि कोई अमर वाक्य हो सकते हैं, तो वे उनके तीर्थंकरोंकी अंतिम अवस्था में खिरनेवाली चाणी वाक्य हैं, जिसे जैन समाज में वही सम्मान है जो वेद-वाक्योंको हिन्दु धर्ममं है। हमारे ऋगु, यजु०,
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