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________________ अनेकान्त [चैत्र, वीर निर्वाण सं० २४६५ है, परीक्षापूर्वक प्रवृत्त हुआ है अथवा प्रेक्षावान्-समीक्ष्यकारी प्राचार्यमहोदयके द्वारा जिसकी प्रवृत्ति हुई है और जिसने संपूर्ण मिथ्याप्रवादको विघटित-तितर बितर-कर दिया है। विस्तीर्णदुर्नयमयप्रबलान्धकार-दुर्बोधतत्त्वमिह वस्तु हितावबद्धम् । व्यक्तीकृतं भवतु नस्सुचिरं समन्तात्सामन्तभद्र-वचनस्फुटरत्नदीपैः ।। -न्यायविनिश्च यालंकारे, वादिराजसूरिः फैले हुए दुर्नयरूपी प्रबल अन्धकार के कारणमे जिसका तत्त्व लोकमें दुर्बोध हो रहा है-ठीक समझ नहीं पड़ता-वह हितकारी वस्तु-प्रयोजनभन जीयादि पदार्थमाला-श्रीसमन्तभद्रके वचनरूपी देदीप्यमान रत्नदीपकोंके द्वारा हमें सब ओरसे चिरकाल तक स्पष्ट प्रतिभामित होव–अर्थात् स्वामी ममन्तभद्रका प्रवचन उम महा-जाज्वल्यमान रत्नसमूहके ममान है जिसका प्रकाश अप्रनिहन होता है और जो संमारमें फैले हुए निरपेक्षनयरूपी महामिथ्यान्धकारको दूर करके वस्तुतत्त्वको म्पट करनेमें समर्थ है, उसे प्राप्त करके हम अपना अज्ञान दूर करें । स्यात्कारमुद्रितसमस्तपदार्थपर्ण त्रैलोक्यहर्म्यमखिलं स खलु व्यनक्ति । दुर्वादकोक्तितमसा पिहितान्तरालं सामन्तभद्र वचनस्फुटरलदीपः ।। -श्रयगावेल्गोलशिलाले. नं०१०५ श्रीममन्तभद्रका प्रवचनम्पी देदीप्यमान रत्नदीप उम त्रैलोक्यरूपी महलको निश्चितरूपसं प्रकाशित करता है जो स्यात्कारमुद्राको लिये हा समझा पदाथोंग पग है और जिसके अन्तराल दुर्वादियोंकी उक्तिम्पीयन्धकारम आच्छादित हैं। जीवसिद्धिविधायीह कृतयुक्त यनुशासनम् । वचः समन्तभद्रस्य वीरस्येव विज़म्भते ।। -हरिवंशपुराणे, जिनसनाचार्यः जीवसिलिका विधायक और युक्तियों द्वारा अथवा युक्यिोंका अनुशासन करने वाला अर्थात् 'जीवनिद्धि' और 'युनयनुशामन' जैसे ग्रन्थों के प्रणयनरूप---ममन्तभद्रका प्रवचन श्रीवीर के प्रवचनकी तरह प्रकाशमान हैअन्तिम तीर्थंकर श्रीमहावीर भगवान के वचनों के समकक्ष है और प्रभावादिकमें भी उन्हींके तुल्य है। श्रीमत्समन्तभद्रस्य देवस्यापि वचोऽनघम् । प्राणिनां दुर्लभं यद्वन्मानुषत्वं तथा पुनः॥ -सिद्धान्तसारसंग्रह, नन्द्रसेनाचार्यः श्रीसमन्तभद्रदेवका निदीप प्रवचन प्राणियों के लिये ऐमा हो दुर्लभ है जैसा कि मनुष्यत्वका पाना-अर्थात् अनादि कालसे संमार में परिभ्रमण करते हुए प्राणियों को जिस प्रकार मनुष्यभवका मिलना दुर्लभ होता है उमी प्रकार समन्तभद्रदेवके प्रवचनका लाभ होना भी दुर्लभ है, जिन्हें उसकी प्रामि होती है वे निःसन्देह सौभाग्यशाली हैं। wege dorm
SR No.538002
Book TitleAnekant 1938 Book 02 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1938
Total Pages759
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size105 MB
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