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________________ वर्ष २ किरण ४] कथा-कहानी २४३ रास्तेमें एक बुढ़िया उनके ऊपर कढ़ा डालकर उन्हें रत्नों की वर्षा होने लगी। इस प्रलोभनको एक बुढ़िया रोज़ाना तंग करती । हज़रत कुछ न कहते, चुपचाप सँवरण न कर सकी और उसने भी विधिवत् आहार मनही मनमें ईश्वरसे उसे सुबुद्धि देने की प्रार्थना करते बनाकर मुनि महाराजको नवधाभक्ति पूर्वक पड़गाहा । हुए नमाज़ पढ़ने चले जाते । हस्वादस्तूर मुहम्मद साहब मुनि महाराजके अँजुली करने पर बुढ़िया जल्दी-जल्दी एक रोज़ उधर से गुज़रे तो चुढ़िया ने कढ़ा न डाला। गरम खीर उनके हाथ पर खानेके लिए डाल, ऊपर हज़रत के मन में कौतूहल हुआ। आज क्या बात है जो देखने लगी कि अय रत्नोंकी वर्षा हुई, परन्तु मुनिमहाबुढ़िया ने अपना कर्तव्य पालन नहीं किया। दरवाज़ा राज का हाथ तो जल गया, किन्तु रत्न न बरसे । मुनि खुलवाने पर मालूम हुआ कि बुढ़िया बीमार है। हज़रत अन्तराय समझकर चले भीगये । मगर बुढिया ऊपर को अपना सब काम छोड़ उसकी तीमारदारी (परिचर्या) मुँह किये रत्न-वृष्टि का इन्तज़ार ही करती रही । उसकी में लग गये । बुढ़िया हज़रत को देखते ही कांप गई और समझ में यह तनिक भी नहीं आया कि निस्वार्थ और उसने समझा कि आज उसे अपनी उद्दण्डताओं का स्वार्थ मूलकभाव भी कुछ अर्थ रखते हैं ? फल अवश्य मिलेगा। किन्तु बदला लेने के बजाय उन्हें (५) कौरव और पाण्डव जब बचपन में पढ़ा करते अपनी सेवा करते देख, उसका हृदय उमड़ आया और थे, तब एक रोज़ उन्हें पढ़ाया गया- “सत्य बोलना उसने मुहम्मद साहब पर ईभान लाकर इस्लाम धर्म चाहिए, क्रोध छोड़ना चाहिए।" दूसरे रोज़ सबने पाठ ग्रहण किया । हज़रत के जीवन में कितनीही ऐसी झाँकियाँ सुना दिया किन्तु युधिष्टिर न सुना सके और वह खोए हैं, जिनसे विदित होता है कि सुधारकों के पथमें कितनी हुएसे चुप-चाप बैठे रहे, उनके मुँहसे उस रोज़ एक वाधायें उपस्थित होती हैं और उन सबको पार करनेके शब्द भी नहीं निकला । गुरुदेव झुंझलाकर बोले-युधिलिए विरोधियोंको अपना मित्र बनानेके लिए, उन्हें ष्ठिर तू इतना मन्दबुद्धि क्यों है ! क्या तुझे २४ घण्टे कितने धैर्य और प्रेममय जीवनकी आवश्यकता पड़ती में यह दो वाक्य भी कण्ठस्थ नहीं हो सकते, युधिष्ठिर है। विरोधीको नीचा दिखाने, बदला लेने आदिकी का गला भर आया वह अत्यन्त दीनता-पूर्वक बोलेहिंसक भावनाओंसे अपना नहीं बनाया जा सकता। गुरुदेव ! मैं स्वयं अपनी इस मन्द बुद्धि पर लज्जित हूँ। कुमार्गरत, भूला-भटका प्रेम-व्यवहारसे ही सन्मार्ग पर २४ घण्टेमें तो क्या जीवनके अन्त समय तक इन आ सकता है। दोनों वाक्यों को कण्ठस्थ कर सका--जीवन में उतार (४) अक्सर ऋद्धिधारी मुनियांके आहार लेनेके सका-तो अपने को भाग्यवान् समझंगा। कलका अवसर पर रत्नोंकी वर्षा होती है । एक बारका पुराणों पाठ इतना सरल नहीं था जिसे मैं इतनी शीघ्र याद कर में उल्लेख है कि एक नगरमें जब ऋिद्धिधारी मुनियों लेता।" गुरुदेव तब समझे पाठ याद करना जितना का आगमन हुआ तो भक्तोंके घर आहार लेते हुए सरल है जीवन में उतारना उतना सरल नहीं। * * *
SR No.538002
Book TitleAnekant 1938 Book 02 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1938
Total Pages759
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size105 MB
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