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मेरी प्रमिलाया [To-श्री रघुवीरशरण अग्रवाल एम.ए. 'धनरपाम' ]
अज्ञान-निशाने कर प्रसार, फैलाया फिरसे अन्धकार ! सब लुप्त हुआ वह पर्व-ज्ञान भारतको जिससे मिला मान !!
अब होवे तमका शीघ्र अन्त । चमके सुज्योति फिरसे अनन्त ।।
एक कार [ भी भगवतस्वरूप बैन 'भगवत्'] टूट टूटकर उलझ गये हैं, मेरी बीलाके सब तार ! उतर गया है मम-भाग्यसे, प्यार और आदर सत्कार !! 'व्यर्थ' समझने लगा उसे है, अब यह स्वार्थ-पर्ण-संसार ! प्रभो . कृपाकर एकबार तो, भरदो फिर रस-मय झनकार !!
हिंसाका फैला है स्वराज्य, सब भक्षणीय कुछ नहीं त्याज .. आचार नहीं, नहिं सद्विचार, अपना-सा होता कहाँ प्यार !!
हो जाएँ फिरसे सब सुधार । पसी मुज्योतिका हा प्रसार ॥
मेरे इस मरु-थल प्रदेशमें, नीरसताका है अधिकार ! ठुकराता है विश्व हृदय से, दुर्वचनोंका दं उपहार !! फले-फलं हुए द्रुम दलसं, वंचित है मेरा आकार ! प्रभो कृपाकर एकबार तुम, करदो मुझमें रम संचार !!
हा ' पड़ा परम्पर भेद भाव, उत्पन्न हुए जिसस कुभाव ! छल दम्भ मोहका पड़ा जाल, पल-पल में प्राती नई चाल !!
हों शुद्ध परम्पर प्रेम-भाव । मिट जाएँ सभी मन मलिन भाव ।।
हैं धर्म आड़में छिपे पाप. जिन नए किया सब यश प्रताप ! हुआ सत्य धर्मका हा ! विनाश. पाखण्ड मतोंके बिछे पाश !!
अब 'अनेकान्त' में हों विलीन । मुख पाएँ सब ही धनी दान ।।
नाविक मूर्ख, जर्जरित नौका, शंप नहीं जिसमें पतवार ! विमुख-वायु बह रही पयोनिधि, मचा रहा है हा-हाकार !! मैं हताश, निश्चेष्ठ, कर रहा, केवल चिन्ताका व्यापार ! प्रभो! कृपाकर एकबार बस,
मझको उस पार !!