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________________ अमेकान्त [ज्येष्ट, वीर-निर्वाण सं०२४६५ धन्यानामादधाना धृतिमधिषसता मंडलं जैनमग्यू आचः सामन्तभद्रयो विदधतु विविधां सिद्धिमुद्भूतमुद्राः ।। -पटसहस्या, श्रीविद्यानन्दः स्वामी समन्तभद्रकी वाणी-वाक्ततिरूप सरस्वती-अद्वैत-पृथक्त्व आदिके एकान्त आग्रहरूपीउग्रग्रह-जन्य गहन विपत्तिको दूर करनेके लिये अलंध्यवीर्या है-अप्रतिहत शक्ति है-,स्यात्काररूपी अमोष मंत्रका प्रणयन करनेवाली है, शुद्ध सद्ध्यान धीरा है-निर्दोष परीक्षा अथवा सची जांच-पड़तालके द्वारा स्थिर है,-उद्भूतमुद्रा है-ऊँचे आनन्दको देनेवाली है-धैर्यवन्त-धन्य-पुरुषोंकी अवलम्बनस्वरूप है और अग्र जैन मंडल है-जैनधर्मके अन्तःतेजको खूब प्रकाशित करने वाली है- वह वाणी लोकमें नाना प्रकारकी सिद्धिका विधान करे-उसका आश्रय पाकर लौकिक जन अपना हित सिद्ध करनेमें समर्थ होवें। अपेक्षकान्तादि-प्रबल-गरलोद्रेक-दलिनी प्रवृद्धाऽनेकान्ताऽमृतरस-निषेकाऽनवरतम् । प्रवृत्ता वागेषा सकल-विकलादेश-वशतः समन्ताद्भद्रं वो दिशतु मुनिपस्याऽमलमतेः॥ -मष्टसहस्यां, श्रीविद्यानन्दः निर्मलमति श्रीसमन्तभद्र मुनिराजकी वह वाणी, जो अपेक्षा-अनपेक्षादिके एकान्तरूप प्रबल गरल (विप) के उद्रेकको दलने वाली है, निरन्तर अनेकान्तरूपी अमृतरसके सिञ्चनसे खूब वृद्धिको प्राप्त है और सकलादेशों-प्रमाणों-तथा विकलादेशों-नयों के अधीन प्रवृत्त हुई है, सब ओरसे तुम्हारे मंगल एवं कल्याणकी प्रदान करने वाली होवे-उसकी एकनिष्ठापूर्वक उपासना एवं तद्रूप आचरणसे तुम्हारे सब ओर भद्रतामय मंगलका प्रसार होवे । गुणान्विता निर्मलवृत्तमौक्तिका नरोत्तमैः कण्ठविभूषणीकृता । न हारयष्टिः परमेव दुर्लभा समन्तभद्रादिभवा च भारती ॥ -चन्नप्रभचरिते,श्रीवीरनन्याचार्यः गुणोंसे-सूतके धागोंसे गूंथी-हुई, निर्मल गोल मोतियोंसे युक्त और उत्तम पुरुषोंके कण्ठका विभषण बनी हुई हार यष्टिको-मोतियोंकी मालाको प्राप्त कर लेना उतना कठिन नहीं है जितना कठिन कि समन्तभद्रकी भारती (वाणी) को पा लेना-उसे खूब समझ कर हृदयंगम कर लेना है, जो कि सदगणोंको लिये हुए है, निर्मल वृत्त (वृत्तान्त, चरित्र, आचार, विधान तथा छंद) रूपी मुक्ताफलोसे यक है और बड़े बड़े प्राचार्यों तथा विद्वानोंने जिसे अपने कण्ठका आभूषण बनाम है-वे नित्य ही उसका उधारण तथा पाठ करनेमें अपना गौरव और अहोभाग्य समझते रहे हैं । अर्थात् समन्तभद्रकी वाणी परम दुर्लभ है-उनके वचनोंका लाभ बड़े ही भाग्य तथा परिश्रमसे होता है
SR No.538002
Book TitleAnekant 1938 Book 02 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1938
Total Pages759
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size105 MB
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