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________________ अनेकान्त [आपाद, वीर-निर्वाण सं०२४६५ पूजा-वन्दना की है-,जो उपेय तत्त्वको बतलाने वाली है, उपायतत्त्वकी साधनस्वरूपा है, पूर्व पक्षका खण्डन करने के लिये प्रचण्ड वाग्विलासको लिये हए हैलीलामात्रमें प्रवादियोंके असत्पक्षका खण्डन कर देने में प्रवीण है-और जगतके लिये हितरूप है, उस समन्तभद्र भारतीका मैं स्तवन करता हूँ। पात्रकेसरि-प्रभावसिद्धि -कारिणी स्तुवे, भाष्यकारपोषितामलंकृतां मुनीश्वरैः। गुनपिच्छभाषितप्रकृष्टमंगलार्थिका, सिद्धिसौख्यसाधनी समन्तभद्रभारतीम् ॥४॥ पात्रकेसरी पर प्रभावकी सिद्धिमें जो कारणीभूत हुई--जिसके प्रभावसे पात्रकेसरी-जैसे महान् विद्वान जैनधर्ममें परिणत होकर बड़े प्रभावशाली प्राचार्य बने-, जो भाष्यकार-अकलंकदेव--द्वारा पुष्ट हुई, अनेक मुनीश्वरों-विद्यानन्दादि-द्वारा अलंकृत की गई, गुद्ध पिच्छाचार्य (उमास्वाति) के कहे हुए उत्कृष्ट मंगलके अर्थको लिये हुए है-उसके गम्भीर प्राशयका प्रतिपादन करने वाली है-और सिद्धिके-स्वात्मोपलब्धिकेसौख्यको सिद्ध करने वाली है, उस समन्तभद्रभारतीको-समन्तभद्रकी प्राप्तमीमांसादिरूप कृतिको-मैं अपनी स्तुतिका विषय बनाता हूँ-उसकी भूरि भूरि प्रशंसा करता हूँ। इन्द्रभतिभाषितप्रमेयजालगोचरी, वर्द्धमानदेवबोधबुद्धचिद्विलासिनीम् । योग-सौगतादि-गर्वपर्वताशनि स्तुवे, क्षीरवाधिसनिभा समन्तभद्रभारतीम् ॥ ५ ॥ इन्द्रभूति (गौतम गणधर) का कहा हुश्रा प्रमेय समूह जिसका विषय है,जो श्रीवर्धमानदेवके बोधसे प्रयुद्ध हुए चैतन्यके विलासको लिये हुए है,योग तथा यौद्धादि मतावलम्बियोंके गर्वरूपी पर्वतके लिये वज्रके समान है और क्षीरसागरके समान उज्ज्वल तथा पवित्र है, उस समन्तभद्रभारतीका मैं कीर्तन करता हूँ उसकी प्रशंसामें खुला गान करता हूँ। मान-नीति-वाक्यसिद्ध-वस्तुधर्मगोचर, मानितप्रभावसिद्धसिद्धिसिद्धसाधनीम् । घोरभूरिदुःखवार्षितारणक्षमामिमा, चारुचेतसा स्तुवे समन्तभद्रभारतीम् ॥६॥ प्रमाण, नय तथा प्रागमके द्वारा सिद्ध हुए वस्तु धर्म है विषय जिसके-जिसमें प्रमाण, नय तथा प्रागमके द्वारा वस्तुधर्मोको सिद्ध किया गया है-,मानित है प्रभाव जिसका ऐसी जो प्रसिद्ध सिद्धि-स्वात्मोपलब्धिउसके लिये जो सिद्धसाधनी है-अमोघ उपायस्वरूपा है-और घोर तथा प्रचुर दुःखोंके समुद्रसे पार तारने के लिये समर्थ है, उस समन्तभद्रभारती की मैं प्रेमपूर्ण हृदयसे प्रशंसा करता हूँ। सान्तसाधनाद्यनन्तमध्ययक्त मध्यमा.शन्यभाव-सर्ववेदितत्त्वसिद्धिसाधनीम । हेत्वहेतुवादसिद्ध वाक्यजालभासुरी, मोक्षसिद्धये स्तुवे समन्तभद्रभारतीम् ॥७॥ सादि-सान्त, अनादि-सान्त, सादि-अनन्त, और अनादि-अनन्त रूपसे द्रव्यपर्यायोंका कथन करनेमें जो मध्यस्था है-इनका सर्वथा एकान्त स्वीकार नहीं करती-, शून्य (अभाव) तत्त्व, भावतत्त्व और सर्वशतत्त्वकी सिद्धिमें साधनीमत है और हेतुवाद तथा अहेतुवाद (भागम) से सिद्ध हुए वाक्यसमूहसे प्रकाशमान है-अर्थात् जिसके देदीप्यमान वाक्योंका विषय युक्ति और भागमसे सिद्ध है, उस समन्तभद्रभारतीकी मैं मोक्षकी सिद्धि के लिये स्तुति करता हूँ। "व्यापकद्वयाप्तमार्गतत्त्वयुग्मगोचरा, पापहारि-वाग्विलासि भूषणांशुको स्तुवे । श्रीकरी च धीकरी च सर्वसौख्यदायिनी, नागराजपूजितां समन्तभद्रभारतीम् ॥८॥ .. व्यापक-व्याप्यका गुण-गुणीका-ठीक प्रतिपादन करनेवाले प्राप्तमार्गके दो तत्त्व-इयतत्त्व, उपादेयतत्त्व अथबा उपयतत्त्व और उदायतत्त्व-जिसके विषय है, जो पापहरणरूप आभूषण और वाग्विलासरूप वस्त्रको भारण करनेवाली है। साथ ही भी-साधिका, बुद्धि-वर्षिका और सर्वमुख-दायिका है, उस नागराज-पूजित समन्तभद्रभारतीकी मैं स्तुति करता हूँ।
SR No.538002
Book TitleAnekant 1938 Book 02 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1938
Total Pages759
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size105 MB
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