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'योनिप्रामृत'और 'जगत्सुन्दरी-योगमाला
[सम्पादकीय 'जोणीपाहुड' अथवा 'योनिप्राभृत' का नाम बहुत १३० की कल्पना की गई जान पड़ती है-प्रमाणमें
- असेंसे सुना जाता है । परन्तु यह ग्रन्थ किस उक्त वाक्य फुटनोटमें उद्धृत भी किया गया है। परन्तु विषयका है, किसका बनाया हुश्रा है, कबका बना हुआ श्लोकसंख्याकी कल्पना कहाँसे की गई, यह कुछ है, कितने श्लोकपरिमाण है, कहाँ के भण्डारमें मौजूद है मालूम नहीं होता! 'ग्रन्थावली' में इस अंथ पर जो
और पूरा उपलब्ध होता है या कि नहीं, इत्यादि बातोंसे फुटनोट दिया है उसके द्वारा यह स्पष्ट सूचना की गई है जनता प्रायः अनभिज्ञ है । वि० संवत् १९६५ में प्रका- कि-'यह ग्रन्थ पूनाके दकनकालिजके सिवाय और शित 'जैनग्रन्थावली' में पृ० ६६.६७ पर इस ग्रन्थका कहीं भी उपलब्ध नहीं होता, जेसलमेर में होनेका उल्लेख है और उसमें इसे 'धरसेनाचार्य'की कृति लिखा उल्लेख ज़रूर मिलता है परन्तु अब यह वहाँ नहीं है है; साथ ही इसकी श्लोक संख्या ८०० दी है और इसके (त्रुटक है )। अतः दक्कनकालेजमें यह ग्रन्थ पूर्ण है रचे जानेका संवत् १३० बतलाया है । परन्तु यह सब या कि नहीं इस बातकी खोज करके इसकी लोकसंख्या मूल ग्रन्थको देखकर लिखा गया मालूम नहीं होता । वगैरहका निर्णय करना चाहिये।' बृहटिप्पणिका'नामकी एक संस्कृत सूची किसी आचार्य- इस सूचना परसे इस विषयमें कोई सन्देह नहीं द्वारा सं० १५५६ में लिखी गई थी, उसमें इस ग्रन्थका रहता कि उक्त श्लोक-संख्यादि-विषयक उल्लेख मूलमन्थउल्लेख निम्न प्रकारसे पाया जाता है-
को देखकर नहीं किया मया है-यो ही वृहटिप्पणिका “योनिमाभृतं वीरात् ६०० धारसेन"
तथा दूसरी किसी सूची परसे उसकी कल्पना की गई है। इस परसे ही ग्रन्थके कर्तृत्व विषयमें 'धरसेनाचार्य' वृहटिप्पणिकाका उक्त उल्लेख यदि मूलप्रथको देख की और ग्रन्थके रचे जानेके काल-सम्बन्धमें वि० संवत् कर ही किया गया है तो कहना होगा कि उल्लेखित