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________________ अनेकान्त [कार्तिक, वीर-निर्वाण सं० २४६५ जायसवाल, एम. ए. विद्यामहोदधिने लिखा है। हाँ उल्लेख मिलता है २६०० वर्ष बादके बने उसमें अनेक प्रमाणोंसे यह सिद्ध किया गया है सूर्य सिद्धान्त आदि ग्रंथोंमें' । कि विक्रमादित्यस पर्व ही कलियग समाप्त हो -भारतीय ज्योतिःशास्त्र, पृ०१४१ । चुका था, उसके पश्चात विक्रम संवत चला इसीप्रकार कृतयुग आरम्भकी बात है। जिसको प्राचीन लेखों में कृत-संवतके नामसे इसके विषयमें भी शास्त्रोंका मत है कि जब उल्लेख किया है। इसी भावकी पुष्टि जयचन्द्रजी सूर्य, चंद्रमा, तथा वृहस्पति एक राशीमें आवेगे विद्यालंकारने अपनी रूपरेखा' में की है। तब कृतयुगका प्रारम्भ होगा, परंतु ज्योतिर्विद् जानते हैं कि इनका एक राशीमें श्राना असंभव है । इस कल्पनाका कारण यही था कि जब उपर्यक्त विवेचन से सिद्ध है कि कलियुग ब्राह्मणोंने देखा कि विक्रमादित्यके राज्यमें सब आदिकी कल्पना एक निराधार कल्पना है तथा बातें अच्छी हैं तो उन्होंने कह दिया कि कृत-युग नवीन कल्पना है। इस कल्पनाका मुख्य कारण श्रागया और उनके संवतका नाम भी कृत-संवत् सृष्टिकी रचनाका सिद्धान्त है। जब यह माना रखदिया; परन्तु जब उनके पश्चान फिर भी वही जाने लगा कि सम्पूर्ण जगत एक समय उत्पन्न पूर्ववत अवस्था होगई तो 'कलि-वृद्धि भविष्यति' हा है तो उसकी प्रायका प्रश्न उपस्थित होना का शोर मचा दिया और कलियुगकी आयुभी भी स्वाभाविक ही था। बस इसी प्रश्नको हल बढ़ादी ! इस विषयमें हम भारतके ही नहीं करनेके लिये उपयुक्त कल्पना की गई है। इस किन्तु संसारके ज्योतिप-विद्याके सर्वश्रेष्ठ विद्वान कल्पनाका एक अन्य भी कारण ऐतिहासिकोंने पं० बालकृष्णजी दीक्षितका मत लिख देना परम लिखा और वह यह है कि खालडियन लोगाम आवश्यक समझते हैं । श्राप लिखते हैं कि एक यग अथवा सृष्टिसंवत् ४३२००० वर्षका ज्योतिप- ग्रंथोंके मतसे शकारम्भके पूर्व ३१७६ था, उसीके आधारपर इस कल्पनाको जन्म वर्पमं कलियुग श्रारम्भ हुआ ऐसा कहते हैं सही, दिया गया। और उसमें ४३२००० के स्थान पर किन्तु जिन ग्रंथों में यह वर्णन है वे ग्रन्थ २६०० चार बिन्दु बढ़ाकर चार अरब बत्तीस करोड़ वर्ष कलि लगनेके बादके हैं । सिवा इन ज्योतिष ४३२०००००००की संख्या करदी गई। सारांश प्रन्थोंके प्राचीन ज्योतिष या धर्मशास्त्र आदि यह है कि कालके प्राचीन और वास्तविक भेद ग्रन्थोंमें कलियुग प्रारम्भ कब हुआ यह देखनेमें उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी ही हैं, जोकि जैन गा, न पुराणों में ही खोजनेसे मिलता शास्त्र की मान्यता है । यही मान्यता प्राचीन वैदिक है । यदि कहीं होगा भी तो वह प्रसिद्ध नहीं है। आर्यों की मान्यता थी । वास्तव में जैन-धर्म हाँ यह बात तो अवश्य है कि कुछ ज्योतिष और प्राचीन वैदिक-धर्म एक ही वस्तु थी-बादमें ग्रन्थोंके कथनानुसार यह वाक्य मिलते हैं कि उसके रूपान्तर होकर अनेक मत मतान्तरोंकी कलियुग के प्रारम्भमें सब ग्रह एकत्रित थे, किन्तु सृष्टि हुई है। नवीन वैदिक धर्मी अपने प्राचीन गणित से यह सिद्ध नहीं होता कि ये किस समय वास्तविक धर्मको भलकर नई नई कल्पनाएँ (एकत्रित) थे। यदि थोड़ी देरके लिये ऐसा मान करते हैं जैन- धर्म ही प्राचीन वैदिक धर्म है, भी लें कि सब ग्रह अस्तंगत थे किन्तु भारत इस विषयका सविस्तार और सप्रमाण विवेचन श्रादि पुराणों में तो इसका उल्लेख नहीं मिलता। हम 'धर्मके आदि प्रवर्तक' ग्रंथ में करेंगे।
SR No.538002
Book TitleAnekant 1938 Book 02 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1938
Total Pages759
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size105 MB
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