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________________ भक्तामर स्तोत्र (ले० श्री. पं० अजितकुमार जैन शास्त्री) कर्मबन्धनस स्वतन्त्र होने के लिये यद्यपि छोड़कर भक्तिपूर्ण अपने भावोंका ही अवलंबन " मुख्य साधन ध्यान है क्योंकि आत्म- लेते हैं। परन्तु अर्हन्तपद पानेकेलिये वीतरागता ध्यान द्वारा ही सविशेषरूप से कर्म-राशि क्षय होकर प्राप्त करना' यह उद्देश्य दोनोंका एक ही जैसा अात्मा शुद्ध होता है किन्तु श्रात्मध्यान सतत होता है, जिसे सिद्ध करनेकी मुनि नथा गृहस्थ सर्वदा नहीं हो सकता और न आत्मध्यानका दोनोंही प्रतिदिन चना करते हैं । अस्तु । असली उच्चम्प (शुक्ल ध्यान) सर्वसाधारणका प्राप्त अन्ति-भक्तिकेलिये मळ्यापसे स्तोत्रीका ही होना है अत: आत्मशुद्धिके लिये अनेक प्रकार- सहारा लेना पड़ता है । म्तोत्रोंके द्वारा चित्त के व्रत, नियम, समिति, गुप्ति, भावना, धर्म आदि भक्तिकी ओर अधिक आर्कषित होता है। अतः क्रियाकलापभी नियत किय गय हैं । उनमें छह स्तोत्र द्वारा भक्ति करनेकी पद्धनि मुनि तथा आवश्यक भी एक गणणीय साधन है । मुनि-मार्ग गृहस्थों में मदाम चली श्रारही है। इमी काग्गा पर चलने वाले वीगत्माओंके लिय सामायिक, जबसे शानिर्मागा प्रारम्भ हश्रा मंगलाचरण वंदना, स्तुति, प्रतिक्रमण, स्वाध्याय, कायोत्सर्ग ये आदि अनेक म्पमं स्तुति रचना भी प्रारम्भ हुई छह आवश्यक कर्म बतलाये हैं और गृहस्थाश्रमम है। जिन ग्रन्थकारांने ग्रन्थ रचनाकी उन्होंने प्राय: रहकर धर्मसाधन करने वालोक लिये प्रायः सबसे पहले अहन्त भगवानकी स्तुतिपर लग्वनी देवपूजन, गुरु उपासना, स्वाध्याय, संयम, तप, दान चलाई-पीछे अन्य विषयपर क़लम उठाई । ये छह आवश्यक कर्तव्य निर्दिष्ठ किये हैं। स्तुतियांका श्रापक सुन्दर रूप म्वामी समन्तभद्राचार्यकै समयसे प्रारम्भ होता है। भक्त मुनिमार्ग तथा गृहस्थमार्गके इन जुदे-जुदे "जुन की सच्ची भक्तिमें कितनी प्रबलदिव्य-शक्ति है, इम आवश्यकोंमें भक्ति-विषयक वंदना, स्तुति तथा बातका उदाहरण सबसे पहले स्वामी समन्तभद्रने देवपूजन, गुरुपासना ये आवश्यक मिलते जुलते काशी या काञ्ची नगरमें महादेवकी पिण्डीक हैं। मुनि भी स्तुति, वंदना-द्वारा परमेष्ठियोंकी समक्ष स्वयम्भूम्तोत्र पढ़कर संमारके सामने ग्ग्या । भक्ति करते हैं, गृहस्थ भो स्तुति-वंदना द्वारा पंच उपस्थित जनताको समन्तभद्राचार्यने दिग्यला दिया परमेशीकी भक्ति करते हैं । यद्यपि भक्तिको कुछ कि मेरा इष्ट भगवान मुझसे दूर नहीं है, मग प्रबल बनानेकेलिये गृहस्थ अष्ट द्रव्य, गीत, नृत्य, द्वार्षिक भक्ति उसे मेरे सामने ला खड़ा करती है। वादित्र आदि अन्य बाह्य साधनोंका भी अवलंबन तदनुसार उपास्य अर्हन्त-प्रतिमा (चन्द्रप्रभु) लेता है; जब कि मुनि इन बाह्य साधनोंको दृर महादेवकी मूर्ति में प्रकट हुई।
SR No.538002
Book TitleAnekant 1938 Book 02 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1938
Total Pages759
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size105 MB
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