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________________ अनेकान्त [ कार्तिक, वीर निर्वाण सं० २४६४ मकान नहीं ठहर सकता उसही तरह ऊँच वा नीचरूप चिह्नानि विटजातस्य सन्ति नाङ्गेषु कानिचित् । एकही प्रकार के मनुष्यों के आधार पर धर्म नहीं ठहर अनार्यामाचरन् किञ्चिज्जायते नीचगोचरः॥ सकता है। -पद्मचरित न जातिर्गहिता काचिद् गुणाः कल्याणकारणम् । भावार्थ-व्यभिचारसे अर्थात् हरामसे पैदा हुएका व्रतस्थमपि चाण्डालं तं दंवा ब्राह्मणं विदु ॥ कोई निशान शरीर में नहीं होता है, जिससे वह नीच समझा जावे। अतः जिसका आचरण अनार्य अर्थात् भावार्थ कोई भी जाति निन्दनीय नहीं है, मनुष्य नीच हो वहही लोकव्यवहार में नीच समझा जाता हैके गुण ही कल्याण करनेवाले होते हैं, व्रतधारी चांडाल गोत्रकर्म मनुष्योंको नीच नहीं बनाता। भी महापुरुषों द्वारा ब्राह्मण माना जाता है। विप्रक्षत्रियविट्शूद्राः प्रोक्ताः क्रियाविशेषतः । सम्यग्दर्शनसम्पन्नमपि मातङ्गदहजम् । जैनधर्मे पराः शक्तास्ते सर्वे बान्धवोपमाः॥ --धर्मरसिक देवा देवं विदुर्भम्मगृढांगारान्तरोजसम् ॥ -रत्नकरण्ड जात भावार्थ-ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र ये मय भावार्थ-चाण्डालकी सन्तानभी सम्यग्दर्शन ग्रहण अपनी अपनी कुछ क्रियाविशेषके कारण ही भेदरूप कहे जाते हैं । वास्तवमें जैनधर्मको धारण करने करनेसे देवों द्वारा देव ( आराध्य ) मानी जाती है। के लिये मभी समर्थहैं, और उसे पालन करते हुए मब चातुर्वर्ण्य यथान्यच चाण्डालादिविशेषणम् । परस्पर में भाई भाई के समान हैं । अस्तु । सर्वमाचारभेदन प्रसिद्धि भुवनं गतम् ॥ अब इस गोत्र कर्मके लेखको समाप्त करनेसे पहले -पद्मचरित यह भी प्रकट कर देना ज़रूरी है कि किन कारगोसे भावार्थ- --ब्रह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र और चांडाल उच्चगोत्र कर्मका बन्ध होता है और किन कारणांसे मन आचारगाके भेदमे ही भेद रूप माने जाते हैं। नीच गोत्रका। इसका बावत तत्वार्थसूत्र, अध्याय ६टे श्राचारमात्रभेदन जातीनां भंदकल्पनम् । के मूत्र नं० २५, २६ इस प्रकार हैं:न जातिर्बाह्मणीयास्ति नियता कापि तात्विकी ॥ "परात्मनिन्दाप्रशंसं सदसद्गुणोच्छादनोद्भावने च गुणोः सम्पद्यते जातिर्गणध्वंसैविपद्यते । ___ नीचैर्गोत्रस्य ॥ २५ ॥" -धर्मपरीक्षा "तद्विपर्ययो नीचैर्वृत्त्यनुत्सेको चोत्तरस्य ।"२६ ।। भावार्थ- ब्राह्मणादि जाति कोई वास्तविक जाति इनमें बतलाया है किअपनी बड़ाई और दूसरोंकी निंदा नहीं है, एकमात्र प्राचारके भेदसे ही जातिभेदकी करनेसे ---दुसरांके विद्यमान गुणोंकोभी ढाकने और कल्पना होती है । गुणों के प्राप्त करनेसे जाति प्राप्त होती अपने अनहोते गुणोंकोभी प्रकट करनेसे नीचगोत्रकर्म "और गुणोंके नाश होने से वह नष्ट भी होजाती है। पैदा होता है । प्रत्युत इसके दूसरोंकी बड़ाई और अपनी
SR No.538002
Book TitleAnekant 1938 Book 02 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1938
Total Pages759
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size105 MB
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