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________________ वर्ष २, किरण १] गोत्रकर्माश्रित ऊँच-नीचता जुए के खिलाड़ी उबटन आदि सुगन्ध वस्तु बनाने वाले अन्तमें व्यावहारिक दृष्टि से ऊँच-नीचताका विचार शरीरको मलने और पैर चापी करने वाले, चिनाई के करनेके लिये पाठकोंसे हमारा यह नम्र निवेदन है कि वे वास्ते इट बनाने वाले, चना फंकने वाले, पत्थर काटने श्रीप्रभाचन्द्राचार्य-रचित प्रमेयकमलमार्तण्डके चतुर्थ वाले, जर्राही अर्थात् शरीर को फाड़ने चीरने वाले, अध्यायको अवश्य पढ़े, जिसमें श्रीप्राचार्य महाराजने लोकरंजन आदि करने वाले भाड, कुश्तीके पहलवान, अनेक अकाट्य युक्तियों के द्वारा यह सिद्ध किया है कि डण्डों से लड़ने वाले पटेवाज आदि विद्याकार्य, (५) जाति सब मनुष्योंकी एक ही है, जन्मसे उसमें भेद नहीं धोबी, नाई, लुहार, कुम्हार, सुनार आदि-आदि शब्दसे, है, जो जैसा काम करने लगता है वह वैसा ही कहलाता मरे पशुओं की खाल उतारने वाले, जूता बनाने वाले है। प्रतिपक्षी इस विषयमें जो भी कुछ तर्क उठा सकता चर्मकार, बांस की टोकरी और छाज बनानेवाले बॅसफोड़ है उस सबका एक-एक करके श्रीप्राचार्य महाराजने आदि शिल्पकार्य, (६) चन्दनादि गन्धद्रव्य, घी आदि बड़ी प्रबल युक्तियोंसे खंडन किया है, जिससे यह कथन रस, चावल आदि अनाज और कई-कपास मोती आदिका बहत विस्तृत हो गया है। इसी से उसको हम यहां संग्रह कर के व्यापार करनेवाले वणिक्कर्माय । इस तरह ये उदधृत नहीं कर सके हैं। उसको पाठक स्वयं पढ़लें, छहों प्रकार के कर्म करनेवाले श्री अकलंकदेवके कथना ऐसी हमारी प्रार्थना है । हा अन्य ग्रन्थोंके कुछ वाक्य नुसार सावद्यकर्म-आर्य हैं । परन्तु ये उपरोक्त छहों कर्म लिखेजाते हैं, जिनसे व्यवहारिक दृष्टिकी ऊँच-नीचताके दंत्र-आर्य और जाति-आर्य तो करते ही हैं, तब ये कर्म- विषयमें पूर्वाचार्यों का कुछ अभिमत मालूम होसके और आर्य म्लेच्छ खंडोंमें रहनेवाले म्लेच्छ ही होसकते हैं, जो उससे हृदय में बैठी हुई चिरकालकी मिथ्या रूढिका विनाश आर्यों के समान उपर्युक्त कर्म करने लगे हैं, इसीसे कर्म- होकर सत्यकी खोज के लिए उत्कण्ठा पैदा होसके, और आर्य कहलाते हैं। पूरी ग्वोज होजानेपर अनादि कालका मिथ्यात्व दूर होकर सम्यकश्रद्धान पैदा होसके । वे वाक्य इस प्रकार हैं, ये सभी प्रकार के आर्य श्रीविद्यानन्दकं मतानुसार दीक्षायोग्यास्त्रयो वर्णाश्चतुर्थश्च विधोचितः । उच्चगोत्री होते हैं अर्थात् कर्मभूमिके सब म्लेच्छ भी मनोवाक्कायधर्माय मताः सर्वेऽपि ज लवः ।। आर्योंके समान कर्म करने से कर्म-आर्य हो जाते हैं। उच्चावचजनप्रायः समयोऽयं जिनेशिनाम् । इनको छोड़ कर जो म्लेच्छ बच रहे हों वे ही नीचगोत्री नकिस्मन् पुरुष तिष्ठदकस्तम्भ इवालयः ।। ...-यशस्तिलक चम्पू रह जाते हैं,और वे सिवाय अन्तरद्वीपजोंके और कोई भी नहीं हो सकते हैं-वे ही खेती, कारीगरी आदि कोई भावार्थ-ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य ये तीनों तो दीक्षा भी आर्य-कर्म करने के योग्य नहीं हैं और न आर्य-क्षेत्रों के योग्य हैं ही, किन्तु शूद्र भी विधि द्वारा दीक्षाके में उनका अागमन अथवा निवास ही बनता है । इस योग्य हैं। मन-वचन-कायसे पालन किये जाने वाले प्रकार विद्यानन्दस्वामीके मतानुसार भी यही परिणाम धर्मके सब ही अधिकारी हैं । जिनेन्द्र भगवानका यह निकल आता है कि अन्तरद्वीपजोंके सिवाय वर्तमान धर्म-ऊँच नीच दोनों ही प्रकार के मनुष्योंके आधार पर संसार के सभी मनुष्य उच्चगोत्री हैं। टिका हुआ है। एक स्तम्भके आधार पर जिस तरह -1
SR No.538002
Book TitleAnekant 1938 Book 02 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1938
Total Pages759
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size105 MB
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