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________________ युगान्तर हमारा लक्ष्य पीड़ा-कसक, मधुर बन जाए, स्वागतार्थ होंगे हम उद्यत समोद, यदिबाँछनीयता युत क्रन्दन ! पावन प्रयाण-मध्य विघ्न-दल आवेंगे ! मृत्युनगरलके वक्षस्थलपर, धर्म देश जाति-हित प्राणोंका न होगा लोभथिरक उठे मेरा जीवन ! . आएगा समय निकलंकता दिखावेंगे !! बाधाएँ, अभिलाषाओं-सी, भीरुताके भावोंका न होगा हममें निवासकोमल, मोहक बन जाएँ। 'धर्म-ध्वज' लेके जब कदम बढ़ावेंगे ! कष्टोंकी नृशंसतामें हम, दूर हट जायेगा विरोध-अन्धकार सबस-क्रिय नव-जीवन पाएँ। सत्य-रश्मियोंकी जब ज्योति चमकावेंगे !! दुःखमें हो अनुभूति सौख्यकी, पशुताकी श्रृंखलामें जकड़ा हुआ है मन, सुखमें रहे न दुर्लभता। उसे मानवीयताका मंत्र बतलावेंगे ! पशुतामें भी सुलभ-साध्य हो, जिनकी स-क्रिय प्रतिभाएँ हैं कुमार्ग पर, निश्छल, शिशु-सी मानवता । उन्हें सुविशाल-धर्म पथ दिखलावेंगे !! बन्धन ?--बन्धन रहे नहीं वह, मूर्खतासे पूर्ण, हठवादमें पड़े हैं जो किबन जाए गतिकी मर्याद। प्रेम-नीर सिचनसे सरल बनावेंगे ! उस विकासकीसीमा तक, करेंगे विकास सत्य-धर्मका प्रभावनीय, है जहाँ विसर्जित आशावाद । ध्वान्त ध्वंस कर आत्म ज्योति चमकावेंगे !! [श्री भगवत्' जैन] सम्पादकजी बीमार बड़े दुःख और खेदके साथ प्रकट किया जाता कि वे कुछ लेखोंका सम्पादन कर चुके थे। पिछले कि सम्पादक पं. जुगलकिशोरजी मुख्तार ११ बाब सूरजभानजी आदिके लेखोंका वे सम्पदन अगस्तसे बीमार पड़े हैं। उन्हें जोरका बुखार नहीं कर सके । आशा नहीं है कि वे जल्दी ही आया । स्थानीय वैद्य-हकीमका इलाज कराया गया। कोई लेख लिख सके, और १२वी किरणके समस्त और फिर सहारनपुरसे डाक्टर भी बनाया गया, लेखांका सम्पादन कर सकें । ऐसी हालतमें मुख्तार जिनका इलाज अभीतक जारी है। जुलाब दिया सा० के मित्रों, प्रेमियों और उनकी कृतियोंसे अनुगया और इन्जंक्शन भी किया गया। इस सब राग रखनेवालोंका जहाँ यह कर्तव्य है कि वे इस उपचारसे बुखार तो निकल गया, कुछ हरारत अव- संकटके अवसर पर उनके शीघ्र निरोग होनेकी शिष्ट है । लेकिन कमजोरी बहुत ज्यादा होगई है। उत्कट भावना भाएँ, वहाँ विद्वानोंका और सुलेखऊठा-बैठा नहीं जाता, उठते-खड़े होते चक्कर आते कोंका भी खास कर्तव्य है कि वे अपने उत्तम लेखाहैं और रातको नींद नहीं आती, अन्न वन्द है, से 'अनेकान्त' पत्रकी सहायता करें, जिससे १२वीं थोड़ासा दूध तथा अँगूर-अनारका रस लिया जाता किरण और 'विशेषांक' की चिन्ता मिटे । आशा है है, वह भी ठीक पचता नहीं, व भोजनमें रुचि भी · विद्वान लोग मेरे इस निवेदनको जरूर स्वीकार नहीं है। इससे बड़ी परेशानी हो रही है, और करेंगे। इसी वजहसे 'अनेकान्त' में वे अबकी बार अपना निवेदककोई लेख नहीं दे सके हैं। इतना ही ग़नीमत है परमानन्द जैन
SR No.538002
Book TitleAnekant 1938 Book 02 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1938
Total Pages759
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size105 MB
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